गुरुवार, 22 नवंबर 2012

वो आया, खाया और चला गया!


ज़िंदगी में बहुत सी चीज़ें और लोग स्थायी चिढ़ बन हमेशा माहौल में रहते हैं। चाहकर भी हम उनका कुछ उखाड़ नहीं पाते और जो उखाड़ सकते हैं, वो कुछ करते नहीं। ऐसे में मजबूर होकर हम चिढ़ से निपटने के लिए उनका मज़ाक बनाते हैं। चिढ़ का मज़ाक बन जाना और बने रहना व्यवस्था पर उसकी नैतिक जीत है और अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 4 सालों से कसाब ऐसी ही नैतिक जीत का आनन्द ले रहा था। आम आदमी उस पर चुटकुले बनाकर खुश था और वो डाइट कोक के साथ बिरयानी खाकर! ऐसे में जब उसे फांसी दी गई तो बहुतों की तरह मुझे भी यकीन नहीं हुआ। ये जांचने के लिए कि मैं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने बीवी से दो बार मुझे नाखून से नोंचने के लिए कहा और उसने रूटीन वर्क समझ बड़ी सहजता से इसे अंजाम दे दिया। दसियों चैनल पर ख़बर देखने के बाद मैं उसकी मौत को लेकर आश्वस्त तो हो गया मगर तभी अंदर के आशंकाजीवी ने सवाल पूछा कि ऐसा तो नहीं कि कसाब डेंगू से ही मरा हो, और सरकार ने शर्मिंदगी से बचने के लिए बाद में उसे फांसी पर लटका दिया हो। अगर ऐसा है, तो वाकई शर्मनाक है। मच्छर बीएमसी की लापरवाही से पनपा। बीएमसी पर शिवसेना का कब्ज़ा है। लिहाज़ा कसाब की मौत का क्रेडिट कांग्रेस को नहीं, शिवसेना को जाता है। शाम होने तक चूंकि शिवसेना ने ऐसा कोई दावा नहीं किया, लिहाज़ा मैंने भी ज़िद्द छोड़ दी। मगर मन अब भी आशंकाओं से भरा था। सिवाय अफज़ल गुरू के, कसाब की मौत पर पूरा देश खुश था। उसकी हालत वैसी ही हो गई थी जैसे बड़ी बहन की शादी के बाद सभी छोटी के पीछे पड़ जाते हैं। उसे छोड़ दें तो हर कोई इस काम के लिए सरकार की तारीफ कर रहा था। तभी मुझे लगा कि माहौल का फायदा उठा सरकार फिर से कहीं तेल की कीमतें न बढ़ा दे। सब्सिडाइज़्ड सिलेंडर की संख्या छह से दो न कर दे। कलमाड़ी फिर से आईओसी अध्यक्ष न बन जाएं। मगर रात होते होते ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। कसाब आया, खाया और चला गया। मगर मुझे उसके चले जाने पर अब भी यकीन नहीं हो रहा। शायद निराशाभरे माहौल में इंसान को आसमान में छाए बादल भी चिमनी का धुआं लगते हैं।

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पता नहीं किसका श्रेय है..