शुक्रवार, 21 मई 2010

लोकतंत्र की ख़ातिर!

देश में अगर बहुत-सी बुरी चीज़ें हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम कुछ अच्छी चीज़ें न होने दें और अगर कुछ अच्छी चीज़ें हो रही हैं तो ये भी ज़रूरी नहीं कि बुरा होना रूक जाए। अच्छाई-बुराई के इस सह-अस्तित्व को भारत से अच्छा और किसी ने नहीं समझा। दिल्ली में वर्ल्ड क्लास मैट्रो है ये अच्छी बात है, हम चाहते हैं कि हमारे यहां बुलेट ट्रेन चले, ये भी अच्छा है। मगर देश की राजधानी में गाडी पकड़ने में मची भगदड़ में अगर दो-चार लोग मारें जाएं तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। इंडिया होने के चक्कर में भारत अपनी पहचान नहीं गंवा सकता है।

भले ही आज तक हम ड्रेनेज लाइन और पीने के पानी की पाइप लाइन को मैनेज न कर पाएं हो, मगर हिंदुस्तान से ईरान के बीच गैस पाइप लाइन बिछाने की तो सोच ही सकते हैं। हमारे खिलाड़ी भले ही राष्ट्रीय कैंपों में अपने बर्तन तक खुद धोएं मगर राष्ट्रमंडल खेलों के खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय सुविधाएं देने के प्रति तो हम वचनबद्ध हैं हीं। तो क्या हुआ जो हमने आज तक पब्लिक टॉयलेट्स को साफ रखना नहीं सीखा, मगर कार्बन उत्सर्जन में कटौती का वादा कर हमने ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निभा ही दी है। हमारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट भले ही कितना घटिया हो मगर ताज़ा ऑटो सेल नतीजे बताते हैं कि गाड़ियों की बिक्री में हमने सबको पीछे छोड़ दिया है। गरीब बढ़े हैं तो क्या फोर्ब्स की सूची में भारतीय अरबपति भी तो बढ़े हैं। और ये विरोधाभास यूं ही नहीं है। खाते-कमाते लोग तो वोट देते नहीं। रही बात साफ पानी और बढ़िया पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तो जो स्टेशनों में मची भगदड़ में मारे जाते हैं उन्हीं से साफ पानी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर वोट मांगा जा सकता है। लोकतंत्र बचा रहे उसके लिए ज़रूरी है कि थोड़ी बहुत अव्यवस्था भी बची रहे।

3 टिप्‍पणियां:

SANJEEV RANA ने कहा…

ठीक कहा आपने

SKT ने कहा…

धूप है तो छाया है!

रंजना ने कहा…

सटीक,पैना कटाक्ष....