पिछले दिनों साम्प्रदायिक मसले पर छपी एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी। समीक्षक का कहना था कि किताब में कुछ ऐसी कहानियां हैं जो आपको झकझोर देंगी। कहानियां पूरी समस्या पर एक नई दृष्टि डालती हैं। किताब को लेकर कुछ और अच्छी बातें भी लिखी गईं। और अंत में कहा गया, लेकिन इस संकलन में शामिल अधिकतर कहानियां उनके पिछले संकलन में भी थी, और ऐसा लगता है कि 'नई किताब छपवाने की हड़बड़ी' में लेखक नें ऐसा किया! साम्प्रदायिक समस्या पर गम्भीर चिंतन से लिखी कहानियां और किताब छपवाने की हड़बड़ी! वाकई दिलचस्प है।
ऊपर उठने की अजीब मुसीबत है। कट्टरपंथी ऊपर उठने की कोशिश करता है तो उसका दम घुटता है। कट्टरता का मोह वो छोड़ नहीं पाता। कट्टरपंथ को लेकर उसके अपने तर्क (या कुतर्क) हैं। वही उसका जीवन है। उदारवादी लेखक इसे सख़्त नापसंद करता हैं वो उसकी बखियां उधेड़ता है। अपने लेखों, कहानियों के ज़रिये दुनिया को बताता है कि ये कैसे वहशी दरिंदे हैं। लोग उसकी सराहना करते हैं। फिर वो किताब छपवाता हैं। दुनिया कहती है क्या खूब लिखा। उदारवादी लेखक खुश होता है। उसे लैंडिंग स्पेस मिल गया है। वो अब और नहीं उड़ेगा। मान्यता के द्वीप में उसका मन अटक गया है, वो और नहीं उठेगा।
सवाल यही है कि आख़िर हम उपर क्यों नहीं उठते। क्या सालों की गरीबी और गुलामी ने हमें इतना कमज़ोर कर दिया है। भूखे हैं.. तो रोटी चाहिये, बेरोज़गार हैं.. तो नौकरी चाहिये, जानकार हैं.. तो मान्यता चाहिये। सिटी बस में घुसते ही सवारी कंडेक्टर को कहती है, बस.. अगले स्टॉप पर उतार देना मुझे। हम भी ज़िदंगी से यही गुज़ारिश करते हैं, बस.. अगले स्तर तक ले जाओ मुझे !
हर परिवार में रूढ़ियों की रिले दौड़ जारी है। बाप, बेटे को बैटन थमाता है। और वो अपना लैप ख़त्म होने पर अपने बेटे को थमा देगा। ढ़ोना संस्कार बन गया है। पड़ताल गैरज़रूरी है।
वहीं आम आदमी से इधर प्रतिभा या किस्मत के भरोसे कुछ लोग अगर ख़ास हो जायें तो स्टेट्स और दूसरी चोचलेबाज़ियों में फंस जाते हैं। जो पैसे के धनी है, वो 'स्टेटस' की मानसिकता से उपर नहीं उठते, और जिन पर सरस्वती मेहरबान है वो 'मैं' की ज़हनियत से।
चाय की चुस्कियों और सिगरेट के धुंए के बीच जो अधिकतर विमर्श होते हैं उसके पीछे नीयत क्या है। क्या हम ये जानना चाहते हैं कि वाकई समाज की परेशानी क्या है। या फिर उस परेशानी के बहाने ये बताना चाहते हैं कि मेरी समझ का दायरा क्या है। बहस करो...नहीं करोगे तो मैं कहां जा कर ज्ञान की उल्टी करुंगा। किस बहाने ये बता पाऊंगा कि मैंनें 'उन सबको' पढ़ा है जिनके नाम तक तुमने नहीं सुने।
एतराज़ विमर्श पर नहीं है। एतराज़ नीयत पर है। अगर आप युवा पीढ़ी को इस बात पर कोसते हैं कि वो पॉप कॉन और मोबाइल से ऊपर नहीं उठती, इस सबमें उसे न जाने क्या रस आता है। तो आपने अपने विमर्श को किस तरह नैतिकता का जामा पहना दिया। मॉल और पब अगर उनके मनोरंजन मैदान हैं, तो 'गंभीर चिंतन' भी आपकी ज़हनी अय्याशी से ज़्यादा क्या है।
लोकसभा में सांसदों का भिड़ना अगर शर्म है, तो अख़बारों और पत्रिकाओं में बुद्धिजीवियों का वैचारिक द्वंद को क्या कहें....चौथे खम्भे में मौजूद खुले लोकतंत्र का बेहतरीन नमुना! जनप्रतिनिधि अगर स्वार्थों से मजबूर हैं, तो क्या बुद्धिजीवी अपने अहं के हाथों मजबूर नहीं है।
मजबूरियों के मारे एक मजबूर मुल्क बन कर रह गये हैं हम। और इतने बरसों में इस सबका असर ये हुआ कि हमने दोषारोपण की अच्छी परम्परा विकसित कर ली। नेता भ्रष्ट हैं, पुलिस तंग करती है, बाबू नकारा है, बाबा पाखंडी हैं, औलाद निकम्मी है (जैसे ये सभी मंगल ग्रह से आये हों)। सारी माफ़ियां मेरी, सारी ख़ामियां तुम्हारी, सारे दुख मेरे, सारे विलास तुम्हारे। ऊपर उठना भी अजीब मुसीबत है। सच, सिर्फ चिंतन से अगर देश का भला होता तो आज हम अमेरिका से बड़ी महाशक्ति होते!
(कहीं-कहीं लाउड हो जाने के लिए माफी चाहूंगा। )
शनिवार, 25 अक्तूबर 2008
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6 टिप्पणियां:
चाय की चुस्कियों और सिगरेट के धुंए के बीच जो अधिकतर विमर्श होते हैं उसके पीछे नीयत क्या है। क्या हम ये जानना चाहते हैं कि वाकई समाज की परेशानी क्या है। या फिर उस परेशानी के बहाने ये बताना चाहते हैं कि मेरी समझ का दायरा क्या है। बहस करो...नहीं करोगे तो मैं कहां जा कर ज्ञान की उल्टी करुंगा। किस बहाने ये बता पाऊंगा कि मैंनें 'उन सबको' पढ़ा है जिनके नाम तक तुमने नहीं सुने।
बहुत खूब लिखा । कोई परवाह नहीं.....यहां लाउड कभी कभार थोडा़ बहुत होना ही पड़ता है और वह भी इस उम्मीद के भरोसे कि शायद अब तो जूं रेंग सके।
आपने गंभीर चिंतन की जो तुलना ज़हनी अय्याशी से की .....बहुत मज़ा आया।
तो, सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि ---गोल माल है भई सब गोलमाल है, सीधे रस्ते की यह टेढ़ी चाल है।
पता ही नहीं हम लोग ---अब कब यह हम लिखने का डोंग मैं खत्म करूंगा---मैं ही हूं ...मुझे खुद ही नहीं पता कि मैं हूं कौन---ढेर सारे ब्लाग शुरू कर दिये और अपने आप को समझने लगा एक शैल्फ-स्टाईलड बुद्धिजीवि......बस पता नहीं हम (नहीं, मैं) क्या ढूंढते चले जा रहे हैं, दिखावा करते थकते नहीं.....एक सचमुच की घटना कल रात की बताता हूं....मेरा 17 वर्ष का बेटा मेरे साथ आ कर लेट गया ...वह और मैं बहुत खुलेपन से बातें करते हैं....मुझे थकावट बहुत थी और मैं सोना चाह रहा था और वह बार बार कुछ न कुछ कहे जा रहा था ....मुझे इतना पता है कि उस ने एक बार यह भी कहा कि पापा, आप भी सारा दिन कितने ड्रामे और कितने रोल करते रहते हो ---उस की बात मेरे दिल को छू गई। मैं खूब ठहाका मार के हंसा और ज़्यादा कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया ---यही सोच कर कि उस ने शायद बहुत कुछ आब्जर्व किया ही होगा और वह गलत नहीं हो सकता ।
आप की यह टिप्पणी लिख कर मन हल्का हो गया।
गोलमाल है भई सब गोलमाल है !!!
मुझे कभी कभी इन छदम बुद्दिजीवियों से ज्यादा डर लगता है.....वक़्त के मुताबिक लोगो की नाराजगी में ,विडम्बनाओ में अपनी ख़बर सूंघता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,राजनेताओ से इतर अलग नजर नही आता है.....दरअसल बहस के बहाने ये समझदार व्यापारी की "कारोबारी सूझ बूझ "है .लोगो ने अपने अपने यथार्थ समेट लिए है ...एक सीमित परिधि में ..ये बहसे समाज के इस जटिल ताने बाने को ओर उलझा रही है......मुझे इन बहसों से कोई गुत्थी सुलझती नही दिखती ...कोई कड़वाहट घुलती नही दिखती ....बहस के नाम पर वातावरण को असहज बनाना .रिश्तो में मुश्किलें पैदा करना....कभी कभी ऐसे बुद्दिजीवियों के प्रति मन में उब पैदा करता है....यही बात मैंने अभी अविनाश के ब्लॉग पर कही है....आपने लगभग मेरे मन की बात कह दी है.
अरे भइया, ज़रा भी लाऊड नहीं है.....खरी-खरी लाऊड टाइप लगता है, होता नहीं है.
कमाल कर दिया है...कमाल.
चिंतन बड़ी बात नहीं है | कितना चिंतन आप वास्तिविक होने में बदल पातें हैं यह बहुत बड़ी बात है | दीपावली की हार्दिक बधाईयाँ और शुभकामनाये |
गजब लिखा है और बोनस में मन भी हल्का हो गया!!
आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
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