कुछ लोगों का कहना है कि कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियां देखकर लगता है कि ये खेल दो हज़ार दस में न होकर, मानो दस हज़ार दो में होने हों। ऐसा कहने वालों के संस्कृति-बोध पर मुझे तरस आता है। ये लोग शायद भारत की कार्य-संस्कृति से वाक़िफ नहीं हैं। मेरा मानना है कि इस कार्य-संस्कृति के पीछे हो न हो, अस्सी-नब्बे के दशक की हिंदी फिल्मों का गहरा असर है। उसमें भी ख़ासतौर पर उनके क्लाइमेक्स का।
हीरो-हीरोइन का ‘किसी ग़लतफहमी’ की वजह से ब्रेकअप हो चुका है। अमीर बाप की बेटी इससे काफी दुखी है। बाप सलाह देता है कि कुछ महीने लंदन बिता आओ, मूड़ ठीक हो जाएगा। हीरोइन देश छोड़ने के लिए एअरपोर्ट पहुंचती है। तभी हीरो को ‘हक़ीकत’ का पता चलता है। वो जैसे-तैसे ऑटो पकड़ एअरपोर्ट पहुंचता है और फिल्म ख़त्म होने से एक या दो मिनट पहले दोनों का मिलन हो जाता है। ये सब देख भारतीय दर्शक काफी रोमांचित होता है। उसे ‘शानदार क्लाइमेक्स’ की परिभाषा समझ आती है।
यही वजह है कि निजी ज़िदंगी में वो छोटे-बड़े जितने भी काम करता है, चाहता है कि उसका क्लाइमेक्स भी उतना ही रोचक हो। आख़िरी तारीख़ के आख़िरी घंटों में बिल जमा करवा, ट्रेन छूटने से एक मिनट पहले स्टेशन पहुंच, नम्बरिंग स्टार्ट होने के बाद सिनेमा हॉल में घुस, वो अक्सर अपने लिए उत्तेजना जुटाता रहता है। फिर बड़ी शान से लोगों को बताता है कि कैसे मैं स्टेशन पहुंचा या फिर कैसे मैंने आख़िरी वक़्त पर फिल्म की टिकट जुटाई।
अब हमारे नेता या सरकार कोई बृहस्पति या मंगल ग्रह से तो आए नहीं, लिहाज़ा उनके शौक या आदतें भी वही होंगे, जो जनता के हैं। ऐसे समय जब पूरी दुनिया उम्मीद छोड़ चुकी होगी, मीडिया कोस-कोस कर थक चुका होगा, देश बिना नाक के अपनी कल्पना से कांप चुका होगा, सरकार कहेगी, ये देखो हमने सारा काम कर दिया। दर्शक अपनी सीटों से खड़े हो ताली बजाएंगे, कुछ मासूम रो पड़ेंगे और सरकार एक ऐसे काम के लिए हीरो या विजेता बन उभरेगी, जो असल में उसे एक साल पहले ही कर देना चाहिए था!
क्लाइमेक्स का ये फंडा कब का बॉलीवुड फिल्मों से निकल देश की कार्य-संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। लोगों को तो शुक्र मनाना चाहिए कि सारे स्टेडियम वक़्त पर बन नहीं गए....वरना तो कॉमनवेल्थ खेलों से पहले ही हम उनकी बैंड बजा देते। हड़बड़ी के साथ गड़बड़ी भी तो जु़ड़ी रहती है। बावजूद इसके लोग शिकायत करते हैं। वे नहीं जानते कि ज़रा-सी लेटलतीफी से सरकार तारीफ भी बटोरेगी और स्टेडियम भी बचा जाएगी। दुर्घटना से देर भली!
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
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9 टिप्पणियां:
मजेदार व्यंग्य !!
बहुत दिनों बाद आये नीरज भाई.. लेकिन आते ही छाए वाली तर्ज पर आये हो आप तो..
वाकई हड़बड़ी में गडबडी की पूर्ण सम्भावना है.. मस्त
दुर्घटना से देर भली! -समझ गये जी..अब कोई शिकायत न रही.
हम तो फोकट में परेशान बैठे थे. क्लाइमेक्स का इंतज़ार करते हैं आराम से.
बढिया...सटीक व्यंग्य
ham to isa vaakya me pooree shraddhaa rakhate hai^ |
bilkul sahi.harbari me garbari ki puri sambhavana hoti hai..isliye sarkar pira sawdhan is baar..kyonki sawdnahi hati..durghtna ghati.. :)
एकदम देसी फिल्म की पटकथा लिखी है आपने।
बिल्कुल सही दलील है । कहा भी गया है जल्दी का काम शैतान का ।
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