शनिवार, 28 मार्च 2009

पाकिस्तान में होता आइपीएल!



कई दिनों की जद्दोजहद के बाद साफ हो गया कि सरकार बीसीसीआई के आईपीएल के लिए अलग से सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकती। लिहाज़ा बीसीसीआई ने तय किया कि आईपीएल भारत से बाहर होगा। ठीक भी है। अब मायावती या पासवान तो ग्लासगो या जोहानसबर्ग में चुनावी रैलियां कर नहीं सकते। रैलियां कर भी लें तो भी कानपुर से केपटाउन हज़ारों समर्थकों को ट्रक में ले जाना थोड़ा मुश्किल होगा। गाडी वहां तक चलती नहीं और हवाई जहाज में कार्यकर्ताओं के जबरन सफर की परम्परा अभी पड़ी नहीं। रही बात हवाई जहाज की छत्त पर लटक कर सफर करने की...तो इसकी भी इजाज़त मिल पाती। इसीलिए मेरी इस मामले में सरकार से कोई शिकायत नहीं हैं। अलबत्ता, मुझे बीसीसीआई से कुछ शिकायत ज़रूर है।


मेरा मानना है कि बीसीसीआई के पास इतिहास रचने का सुनहरा मौका था जो उसने गंवा दिया। आईपीएल को इंग्लैंड या दक्षिण अफ्रीका ले जाने की बात कर उसने दुनिया को फिर से ये कहने का मौका दे दिया देखो...दक्षिण एशिया अशांत क्षेत्र है। मेरा ख़्याल से अगर आईपीएल को अगर भारत से बाहर जाना ही था तो उसे पाकिस्तान शिफ्ट किया जाना चाहिए था। पाकिस्तान में भी पूरे का पूरा आईपीएल स्वात घाटी में करवाया जाता। इसके लिए बाकायदा तालिबान से बात की जाती। सिक्योरिटी एजेंसी के तौर पर लश्कर-ए-तैय्यबा के लड़ाकों को हायर किया जाता। ए क्यू खान स्कियोरिटी इंचार्ज बनाए जाते। स्कूलों में इसी सिद्धांत पर सबसे शरारती बच्चे को क्लास मॉनिटर बनाया जाता है।
स्वात घाटी में आइपीएल होने से उद्घघाटन समारोह में आतिशबाज़ी का खर्चा भी बचता। असली बम फोड़ चकाचौंध पैदा की जाती। ए-के-47 और हैंडग्रेनेड थामे तालिबानी लड़ाके बाउंड्री लाइन पर चीयर ब्वॉय की भूमिका निभाते। मुशर्रफ खिलाड़ियों को पुरस्कार बांटते। जरदारी,महिला मेहमानों से हाथ मिला उनकी खूबसूरती की तारीफ करते। वहीं सरकार को नीचा दिखाने के लिए विपक्षा नेता पाकिस्तान जा कर मैच देखते। छवि सुधार अभियान के तहत संघ 'पाकिस्तान चलो' का नारा देता। कैसा हसीन दृश्य होता... ब्रेट ली की गेंद पर सहवाग चौके-छक्के लगाते और दर्शक दीर्घा में साथ-साथ बैठे सोहन भागवत और मुल्ला उमर उछल-उछल कर तालियां बजाते।


आईपीएल के पाकिस्तान में होने से सुरक्षा के सारे झंझट ख़त्म हो जाते। बाहरी आतंकी आईपीएल में व्यस्त रहते। स्थानीय आतंकी अपने चुनाव क्षेत्रों के दौरों पर होते। जनता टीवी पर मैच देखती और देश भर में डेढ़ महीने के लिए पूर्ण शांति हो जाती।


बुधवार, 25 मार्च 2009

नैनो के बाद की दुनिया (हास्य-व्यंग्य)



बोलचाल की ज़ुबान में एक शब्द अक्सर इस्तेमाल होता है 'रेड़ पीटना'। मतलब किसी चीज़ को इस हद तक इस्तेमाल करना कि उसकी खूबसूरती चली जाए और उसे देखने-सुनने तक से एलर्जी हो। जैसे ग़ालिब के शेरों का अख़बारों और टीवी की हैडलाइन्स में इतना इस्तेमाल हुआ है कि खूबसूरत से खूबसूरत शेर सुनने में भी कोफ्त होती है। नैनो औपचारिक रूप से लांच हो चुकी है और जल्द ही हम सबके 'हाथ' में होगी। अब भारतीय परम्परा और आदत से मुताबकि मैं साल भर में नैनो की रेड़ पीटती देख रहा हूं। कुछ सम्भावित आशंकांए मुलाहिज़ा फरमाएं।


1.नैनों को लेकर आपका इंतज़ार बढ़ता जा रहा है। गाड़ियां कम हैं और खरीददार ज़्यादा। इस बीच आपको पता चलता है कि दिल्ली के गफ्फार मार्केट में 50 हज़ार की चाइनीज़ नैनो मिल रही है। असली नैनो के मुकाबले इसमें कई दिलचस्प फीचर हैं। पेट्रोल डालने का झंझट नहीं। बैटरी से चलने वाली नैनो। किसी भी मोबाइल चार्जर से चार्ज होने वाली नैनो। आप खुशी-खुशी ख़रीद लेते हैं। और फिर एक रोज़ दरवाज़ा टूटने पर आपको पता चलता है.. अरे...इसमें तो थर्मोकॉल भरा हुआ है।


2. आप घर से निकल कर सामने वाली सड़क पर पहुंचते हैं। यहां वहां देखा। क्या हुआ... कोई नज़र नहीं आ रहा। अरे.. यहीं तो रहते थे... कहां चले गए। तभी आपकी नज़र अपने दांईं तरफ पेड़ के नीचे पड़ती है। एक साथ छे-सात नैनो खड़ी है। आप गाड़ी के नज़दीक जाते हैं। उसके अंदर झांकते हैं। एक शख्स गले में गमछा डाले, दोनों पांव सीट पर रख, खैनी लगा रहा है। आपने इसे पहले कई बार देखा है। आप उसे पहचानने की कोशिश करते हैं। अरे..भईया तुम...जी बाऊजी मैं...और तुम्हारा रिक्शा...वो तो मैंने काफी दिन हुए बेच दिया। और ये गाड़ी...'कुछ पैसे और डालकर' कल ही ख़रीदी है।


3. इसी तरह नैनो और बहुतों के 'रीच' में आ जाएगी। सब्ज़ी वाली रेहड़ी, कुल्फी वाली रेहड़ी और टिक्की वाली रेहड़ी..क्रमशः सब्ज़ी वाली नैनो, कुल्फी वाली नैनो और टिक्की वाली नैनो में तब्दील हो जाएगी। मां का पल्लू पकड़ कर बच्ची ज़िद्द कर रहा है... मम्मी दस रूपये दो न, चाऊमीन वाली नैनो आई है।


4. सड़क पर नैनो की तादाद बढ़ने लगेगी। ज़ाहिर है गाड़ियां बढ़ेंगी तो हादसे भी बढ़ेंगे। जिस तरह ट्रक से ट्रक भिड़ जाते हैं। उसी तरह नैनो से नैनो भी भिड़ेंगी। ऐसे में इस तरह की हैडलाइन्स आम हो जाएंगी....'नैनो से नैनो भिड़ी'..दिल तो नहीं मिले, दो की टांग ज़रूर टूट गई। 'नैनो से टक्कर में दो ने नैन गंवाए।' नैनो की बढ़ती तादाद से सड़क पर यहां-वहां चेतावनी लिखी रहेगी। 'सड़क पर चलते वक़्त नैनो का इस्तेमाल करें वरना नैनो के नीचें आ जांएगें।'


5.इस बीच घरों में इस तरह के दृश्य देखने को मिलेंगे। बीवी, पति को उसकी कंजूसी के लिए ताने दे रही है। पति, वर्तमान के खर्चों और भविष्य की ज़िम्मेदारियां गिना अपनी कंजूसी जस्टिफाई कर रहा है। पत्नी को समझा रहा है डियर, साल भर और इंतज़ार कर लो। मैं वादा करता हूं तुम्हें सैकिंड हैंड नैनो ज़रूर दिला दूंगा। दो-चार बैंक से तो मैंने फाइनेंस के लिए बात भी कर ली है। मगर बीवी उसकी एक नहीं सुन रही। इस बीच डोर बैल बजती है। डिंग-डांग....अरे गंगूबाई तुम...आज इतनी जल्दी कैसे...मेमसाहब वो क्या है न..आज मेरा हसबैंड मुझे ड्राप कर गया है...वो कल ही गाडी खरीदा है...इसलिए मैं जल्दी आई। ये सुन कंजूस पति के ज़हन में ख़तरे की घंटी बजती है। इससे पहले कि मेरी बीवी मुझे ड्राप कर दें, मुझे भी नैनो खरीद लेनी चाहिए।


6. ये साफ है कि टाटा की नैनो से मुकाबले के लिए बाकी कम्पनियां भी छोटी सस्ती गाडियां लाएंगी। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो हो सकता है इसके दाम और नीचे आ जाएं। ऐसा हुआ तो आपको नैनो हर जगह दिखाई देगी। पनवाडी से पान ले आपने उसे बीस का नोट दिया। वो कहता है साब खुल्ले हो तो दे दो। आपका कहते नहीं है। वो कहता है सर, पान के साथ एक नैनो बांध दूं। आप बिदकते हैं। अरे, छोड़ो पहले ही घर में बहुत पड़ी हैं।


और अगर वाकई ऐसा हुआ तो नैनो शो रूम से निकल कर देश भर हॉट बाज़ारों में पहुंच जाएगी। पुराने कपड़ों के बदले बर्तन देने वाले भी नैनो रखने लगेंगे। पति की दो पुरानी पैंटों के बदले आपको नैनो मिल जाएगी। 'बिलो नैनो लाइन' जैसे जुमले चर्चित हो जाएंगे। सर्वेंट क्वॉटर की तरह सर्वेंट पार्किंग की मांग उठने लगेगी। लोग गैस्ट रूम की तरह घरों में अलग से गैस्ट कार रखेंगें। चुनावों में नोट के बदले नैनों बांटी जाएगी। नेता नोट के बदले चाबियां बांटते पकड़े जाएंगें। गरीब के झोपड़े के बजाए लोग गरीब की गाडी में बैठ फोट खिंचावाएंगे। समाज, नैनो और ग़ैर नैनो वालो में बंट जाएगा।

शनिवार, 21 मार्च 2009

कहानी कामवाली की! (हास्य-व्यंग्य)




भारतीय लड़कियों को जीवन में दो लोगों की शिद्दत से तलाश रहती है। शादी से पहले अच्छे पति की और शादी के बाद अच्छी काम वाली की। अच्छा पति अगर ज़्यादा अच्छा हो तो वो लड़की को दूसरी तलाश से बचा भी सकता है। मैं चूंकि उतना अच्छा नहीं हूं लिहाज़ा मेरी बीवी की दूसरी तलाश अब भी जारी है।


पिछले एक साल में न जाने कितनी कामवालियां आईं, कितनी गईं और कितनी निकाली गईं मगर बात नहीं बनी। हर किसी के साथ अलग रंग और डिज़ाइन की समस्या है। कोई सूरज की परछाई से समय का अंदाज़ा लगाती है और देर से पहुंचती है, किसी की मान्यता है कि काम किया नहीं निपटाया जाता है, कोई संगीत प्रेम के चलते नित-नया सामान तोड़ विभिन्न ध्वनियों का आनंद लेती है, तो कोई हाव-भाव से पहले दिन ही बता देती है कि सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार है। वहीं कुछ ऐसी भी हैं जिनकी दिलचस्पी काम में कम और कलंक कथाएं सुनाने में ज़्यादा रहती है और बकौल बीवी इंट्रेस्ट न लेने पर वो हर्ट भी हो जाती है।


लेकिन जो शह कामवालियों को डैडली बनाती है वो है उनका बिना बताए छुट्टी लेना। सुबह के सात बजे हैं। बीवी की दाईं आंख फड़क रही है। मैं कहता हूं लगता है कुछ बुरा होने वाला है। वो कहती है कि शादी को तो एक साल हो गया फिर आज क्यों फड़क रही है। मैं चुटकी लेता हूं, क्योंकि तब मेरी फड़क रही थी।


इस बीच घड़ी नौ बजाने लगती है। अख़बार वाला, कचरे वाला, दूध वाला एक-एक कर ‘सब वाले’ आ चुके हैं मगर ‘उस वाली’ का कोई पता नहीं। फड़कती आंख को वजह मिल गई है। धड़कने बढ़ने लगी है। बीवी टूटने लगी है। मैं सहम गया हूं। रसोई में पड़े बर्तन कोरस में नीरज...नीरज चिल्ला रहे हैं। दस बज चुके हैं। अब वो नहीं आएगी। इस हफ्ते दूसरी और महीने में उसकी पांचवी छुट्टी है। बीवी ने उसे वीआरएस देने का मन बना लिया है। वो आत्मविश्वास खोने लगी है। सोचने लगी है कि शायद उसी में कोई खोट है जिस वजह से कोई काम वाली टिकती नहीं। आंशिक सहमति के बावजूद मैं इसे बुरा ख़्याल बताता हूं। समझ नहीं पा रहा हूं क्या किया जाए। अगली कामवाली से बीवी की जन्मपत्री मिलवाऊं, दोनों को कोई नग पहनाऊं, हवन करवाऊं, लाल रंग के कुत्ते को ग्रिल्ड सैंडविच खिलाऊं या फिर हरी ईंट पर गुलाबी दिया जलाऊं।


कभी-कभी तो मुझे ये भी लगता है इस सबके लिए मैं ही दोषी हूं। शादी के शुरू में मैंने ही इतने हाई स्टैंडर्ड सैट कर दिए जिसका शिकार ये सब कामवालियां हो रही हैं।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

क्रांतिकारी की चप्पल! (हास्य-व्यंग्य)

वो अलस्सुबह दस बजे उठता है। मुंह-हाथ धोता है, जिसे वो नहाना ही समझता है। केतली-भर चाय बना बिस्तर पर बैठता है। पहले अख़बार पढ़ता है। फिर दर्शन का रुख करता है। गुरजेफ से लेकर जिब्रान तक सब पढ़ता है। वो पढ़ता जाता है और उसका तापमान बढ़ता जाता है।दोपहर होते-होते भुजायें फ़ड़कनें लगी है। भेजे के कुकर में विचारों की बिरयानी हद से ज़्यादा उबल चुकी है, रग-रग में सीटियां बज उठी हैं। उसे उल्टी करनी है। लेकिन कहां जाये? ढक्कन कैसे खोले ? दोस्त तो सभी नौकरियों (जो उसकी नज़र में छोटी) पर गये हैं।

हताशा में वो टीवी चलाता है। ख़बरिया चैनल पर रुकता है। जहां 'आज़ादी के हासिल' पर चर्चा हो रही है। इसे ख़ुराक मिल गई। लेकिन, दो मिनट में तीनों विचारक खारिज। ये सब किताबी बातें हैं, इनमें से कोई ज़मीनी हक़ीकत से वाक़िफ नहीं। वो गुस्से में 7388 पर एसएमएस करता है। सोचता है एंकर अभी मैसेज पढ़ कहेगा वाह! क्या कसीली बात लिखी है। वो इंतज़ार कर रहा है, बिना जाने की ये रिपीट टेलिकास्ट है!

इस बीच बहस बिजली समस्या की तरफ मुड़ती है। वो सीधा होता है, वॉल्यूम बढ़ाता है....सत्यानाश......तभी बिजली चली जाती है। लानत है....हासिल की बात करते हैं, 'ये' हासिल है ... बिजली की समस्या पर चर्चा सुनने लगो तो बिजली चली जाती है!ईश्वर, तू ही बता आख़िर क्या कसूर था मेरा ? तेंदूखेड़ा की बजाय मैं टोरांटो में क्यूं नहीं जन्मा ? बर्गर की जगह भिण्डी क्यूं लिखी मेरी किस्मत में ? लेकिन, तभी उसे रंग दे बसंती का डायलॉग याद आता है, सिस्टम से समस्या है तो शिकायत मत करो, उसे बदलने की कोशिश करो।

वो खड़ा होता है...सोचता है....बहुत हुआ....मैं जा रहा हूं अज्ञानता का अंधकार मिटाने, ज्ञान के दीप जलाने, होम का मोह छोड़, दुनिया के लिए खुद को होम करने।लेकिन, ये क्या....कहां हो तुम....यहीं तो थी....कहां चली गई......यहां-वहां हर जगह ढूंढ़ा... नहीं मिल रही...ख़्याल आया..कहीं छोटा भाई तो नहीं पहन गया...हां, वही पहन गया होगा...उसे तो मैं...देखते ही देखते माहौल और मूड बदलने लगा है। देश को बदल देने की 'महत्वाकांक्षा' , भाई को देख लेने की 'आकांक्षा' में तब्दील हो गई है। क्रांतिकारी का भाई, जो ज़रा नीचे दही लेने गया है, नहीं जानता कि उसने देश की उम्मीदों की दही कर दी। नाउम्मीद हुआ क्रांतिकारी फिर से बिस्तर पर जा लेटा है। तापमान गिरने लगा है, जोश भाप बन उड़ चुका है। और इस मुल्क की तक़दीर 'एक बार फिर' इसलिए नहीं बदल पाई क्योंकि क्रांतिकारी को उसकी चप्पल नहीं मिली!

रविवार, 8 मार्च 2009

हाल-ए-पुदिरे (हास्य-व्यंग्य)

मैं कश्मीरी गेट की तरफ से पुदिरे यानि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करता हूं। स्टेशन अपनी तमाम खूबसूरती लिए मेरे सामने हैं। एक नज़र में यक़ीन करना मुश्किल है कि स्टेशन ज़्यादा पुराना है या दिल्ली। पटरियों में फंसे रंग-बिरंगे पॉलीथिन, ज़र्दे के खाली पाउच, प्लास्टिक की बोतलें, पत्थरों पर फाइन आर्ट बनाती पान की पीकें, पपड़ियों से सजी बेरंग दीवारें, अनजान कोनों से आती बदबू, खड़ी गाड़ियों और उखड़े लोगों के बहाए मल और न जाने ऐसी कितनी अदाएं जो अपनी सम्पूर्ण गंदगी के साथ स्टेशन की पुरातात्विकता को ज़िंदा रख रही हैं। मैं जान गया हूं इस स्टेशन पर एक क्षण भी स्टे करना मुश्किल है।

आगे बढ़ता हूं। दो भिखारी दैनिक ऊब मिटाने के लिए झगड़ रहे हैं। दो पुलिसवाले बेलगाम तोंदों के साथ उन पर लगाम लगाने पहुंचते हैं। भिखारियों की सेहत और कर्कशता पर पुलिसवालों की मौजूदगी का असर नहीं पड़ता। उन्हें झगड़ता छोड़ पुलिसवाले डंडे लिए आगे बढ़ते है। वो जानते हैं कि किसी अनहोनी की इतनी औकात नहीं जो उनके डंडे के काबू में न आए वैसे भी सीएसटी जैसे हादसे तो रोज़-रोज़ होते नहीं।
वहीं प्लेटफार्म पूछने के लिए अब भी मैं 'रिलाएबल चेहरे' की तलाश कर रहा हूं। फिर कोई ओवरब्रिज से दूसरे छोर पर जाने का इशारा करता है। सीढ़ियां बड़ी हैं, सांस छोटी, ऊपर पहुंचने तक हांफने लगता हूं। अभी आयी एक गाड़ी से छूटे लोग पुलिया पर धावा बोल देते हैं। धक्कों का मुफ्त लंगर लग जाता है और आवभगत ऐसी की पूछो मत! मना करने के बावजूद थोड़ा और, थोड़ा और कह पेट भर दिया जाता है। सामान थामे आंख बंद कर मैं किनारे लगता हूं। एक-एक कर तमाम कुकर्म फ्लैशबैक में आंखों से गुज़रने लगते हैं। मेरी लांघी दस हज़ार रेड लाइटें, ब्लूलाइन के बेटिकट सफर, ऑफिस में की सैंकड़ों घंटों की कामचोरी! नहीं प्रभु नहीं....तुम इतने बुरे न्यायाधीश नहीं हो सकते। मेरे मिनी भ्रष्टाचारों की इतनी बड़ी सज़ा! इन दरियाई घोड़ों को रोको प्रभु, रोको!
तभी भीड़ छंटती है, सांस आती है, गाड़ी पहुंचती है। एस-सैवन कोच में प्रवेश करता हूं। अंदर वही सब कुछ....मूंगफली के छिलके, पान की पीकें, बिखरी चाय, खाली बोतलें....लगता है निगम के कचरा ढ़ोने वाले ट्रक में बैठ गया हूं और पीछे तख़्ती टंगी है-रेलवे का मुनाफा 90 हज़ार करोड़!

शनिवार, 7 मार्च 2009

क्या आपने इन्हें कहीं देखा है?

क्या आपने इन्हें कहीं देखा है?

हिंदी सीरियल्स देखते वक्त मेरे ज़हन में अक्सर ये बात आती है कि जो परिवार यहां दिखाया गया है ये देश के किस राज्य के, किस ज़िले के, किस शहर के, किस मोहल्ले में रहता है। जहां भी रहता है, उससे मिल कर मैं कुछ सवाल करना चाहता हूं। इसी चक्कर में मैंने काफी धक्के भी खाये। मगर परिवार मेरे हाथ नहीं लगा। खैर, ये सवाल आप से शेयर करना चाहता हूं। अगर परिवार या इस का कोई सदस्य आपसे मिले तो उससे ज़रुर पूछियेगा।

पेश हैं कुछ मासूम सवाल

सच-सच बताना तुम लोग जन्म लेते हो या आर्डर दे कर बनवाये गये हो। लगता तो यही है परिवार के सभी सदस्य आर्डर दे कर बनवाये गये हैं और वो भी किसी कवि की निगरानी में। हमारे यहां तो ढूंढने पर पूरे मुहल्ले में एक ढंग की लड़की नहीं दिखती और तुम्हारे घर में एक से एक..............चलो छोड़ो। और बावजूद उसके घर में कोई ब्लैंक कोल नहीं आती। जहां एक खूबसूरत लड़की रहती है वहां दिन में कम से कम 15-20 ब्लैंक काल्स तो आती ही हैं।

तुम में से कोई मुझे एलजी या जनता फलैट्स में रहता क्यों नहीं दिखता? यहां तो साला दो कमरों का मकान किराये पर लेने में जान निकल जाती है। लेकिन तुम्हारे घर देख विश्वास करना मुश्किल है कि तुम घर में रहते हो या धर्मशाला में ! इतनी लम्बी गैलरी। लोबी के बीचो-बीच सीढ़ियां। जहां देखों कमरे ही कमरें। इसके बावजूद एक भी किरायेदार नहीं। एक-आध कमरा तो कम-से-कम किराये पर चढ़ाओ।

घर के बीचों-बीच जो डाइनिंग टेबल पड़ी रहती है उसे लेकर भी तुम मुझे जवाब दो। जानते हो तुम्हारी इस डाइनिंग टेबल ने हम भारतीय कितनी हीनता का शिकार हुए हैं। जब भी तुम लोगों को वहां खाना खाते देखते हैं तो दिल करता है कि हम भी परिवार के साथ ऐसे ही खाना खायें। मगर क्या करें.....हमारे घर में डबल बैड रखने की जगह नहीं.....डाइनिंग टेबल कहां रखे ? दूसरा डाइनिंग टेबल ले भी आयें तो हमें इतनी तमीज़ नहीं है कि टेबल पर कैसे खाया जाता है ? हमें तो रजाई में बैठ के खाने की आदत है।

बिना किसी काम-धाम के तुम लोग घर में इतने लिपे-पूते क्यों रहते हो ? क्या सोचते हो कि कहीं कोई बारात का न्यौता न आ जाये। घर में औरतें कद्दू भी काटती हैं तो शिफोन की साड़ी में। यार कुछ तो कपड़े की ग्रेस का ख्याल रखो ? कहीं जाना नहीं तो पजामा पहन के बैठो।

प्रिय, क्या तुम्हारे यहां बिजली का बिल नहीं आता। आता है तो इतने फानूश क्यो लगा रखे हैं ? लगा भी रखे हैं तो हर वक्त जला कर क्यों रखते हो ? किसके लिए इतना दिखावा ? मैंने तुम्हें बिजली का बिल भरने जाते भी कभी नहीं देखा। मुझे लगता है तुमने गली के खम्भे में कुंडी मार रखी है। इसीलिए इतने बेफिक हो। वरना तुम कभी तो घर वालों पर चिल्लाते दिखते.....'देख रहो हो इस बार कितना बिल आया है। सौ बार कहता हूं......कमरे से निकलो तो पंखा बंद कर दो।'

वैसे तो तुम हर मुद्दे पर झगड़ते दिखते हो। लेकिन मैंने तुम लोगों को कभी रिमोट के लिए झगड़ते नहीं देखा। जबकि हर भारतीय घर में 69 फीसदी झगड़े तो रिमोट और पसंद का चैनल देखने के लिए ही होते हैं। तुम्हारे पति को भी तुम्हें कभी इस बात पर डांटते नहीं देखा कि क्या ये हमेशा रोने-धोने वाले नाटक देखती हो। ये सब लो-आईक्यू वाले लोग देखते हैं। चलो डिस्कवरी चैनल लगा दो।

अपने बुज़ुर्गों को सुन्दरता और अमरता का तुम कौन-सा घोल पिलाते हो। किस कम्पनी का च्वयनप्रास खाते हैं वो। प्लीज़ मुझे बताओ। न मैने उन्हें कभी खांसते देखा, न हांफते। न किसी की ज़बान लड़खड़ाती है न किसी को ऊंचा सुनता है। सब एक दम हट्टे-कट्टे। हफ्ते-दर-हफ्ते और निखरते जाते हैं। सब की डॉयलग डिलीवरी भी कमाल की है। किसी के एक्सैंट से नहीं पता चलता कि ये पंजाबी है ? मराठी है ? या बंगाली ? सब शुद्ध ख़ालिस नुक्तों की ज़बान बोलते हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती आज ज़िदा होते तो खूब नाराज़ होते। विधवा विवाह को लेकर जो लिबर्टी उन्होंने तुम्हें दिलवाई, उसका तुम ऐसा हश्र करोगी ये उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा। पति की कार अगर खाई में गिरी है, पहले कम-से-कम कन्फर्म तो कर लो कि वो मरा के नहीं। इधर वो मरा नहीं, उधर लगी तुम अखबारों में वर ढूंढनें। तुम शादी कर लेती हो। सम्पूर्ण श्रद्धा से नये पति की हो जाती हो। बच्चा भी होने को है। और ठीक उसी समय तुम्हारा पहला पति, जो लगता है ये सब होने के इंतज़ार में बैठा था, उसी वक़्त आ धमकता है। हैरानी की बात ये है कि तुम हर सीरियल में ये ग़लती करती हो।

बड़े घर, बड़ी गाडी और बड़े मुंह के अलावा तुम लोगों के घाटे भी बड़े-बड़े होते हैं। मिस्टर कपूर और मिस्टर थापा को कभी 5 करोड़ से कम का घाटा नहीं लगता। केबल वाला ढाई सौ से तीन सौ रूपये कर देता है हम लोग केबल कटवा लेते हैं। रिक्शे वाले से दो-दो रूपये के मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। मगर तुम्हारी....तुम्हारी तो बात ही निराली है। हाय! क्या हमे भी कभी पांच करोड़ का घाटा होगा या हम यूं ही आलू-प्याज के मौल-भाव में ही मर जायेंगे !

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

कैसे बनाएं फर्ज़ी बॉयोडेटा ?

बरसों से ये बात विवाद का विषय रही है कि आखिर बॉयोडेटा बनाते वक़्त किस अनुपात में झूठ का इस्तेमाल किया जाये ? विवाद इस बात पर नहीं है कि झूठ का इस्तेमाल किया जाये या नहीं, विवाद अनुपात पर है।
बहरहाल, इसमें भी दो स्थितियां है। पहली ये कि अगर आपकी सारी ज़िदंगी पढ़ते हुए चश्मे का नम्बर बढ़वाते गुज़री है तो हो सकता है इस सवाल का सामना न करना पड़े। लेकिन अगर कुंजिया ही पास करवाती रही है तो ज़ाहिर तौर पर आपकी माकर्शीट दिखाने लायक कम और छिपाने लायक ज़्यादा होगी। ऐसे में बॉयोडेटा बनाते वक्त आपके सामने ये चुनौती है कि शर्मनाक नम्बरों के बावजूद कैसे आप खुद को काबिल दिखाये ?
अगर आप अभी कॉलेज से निकले हैं और बॉयोडेटा में इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि आपका करियर ऑबजैक्टिव क्या है, तो हो सकता है कि ये सवाल आपको रूला डाले। आपको खुद पर शर्म आने लगे। अरे! ये क्या बला है। कॉलेज में फिल्में देखते वक़्त और लड़कियों को पटाने की सम्भावना पर विचार करने के बीच कभी सोचा ही नहीं कि सृष्टि में ऐसा सवाल भी है जो आपसे पूछे.. बता भाई.... तेरी ज़िंदगी का मक़सद क्या है ? अब तक जिस तरह की खुशियों की कामना में दिन गुज़ारते रहे हैं, अगर उसे ही करियर ऑबजैक्टिव में लिख दें तो हो सकता है नौकरी देने वाला आदमी जेल में डाल दें। लुच्चा कहीं का!
खैर, यही वक्त है कि जब आप अपने सीमित कम्पयूटर ज्ञान का इस्तेमाल कर कट, कॉपी, पेस्ट करें और नैट पर सर्फ करते हुए किसी और के बॉयोडेटा से करियर ऑबजैक्टिव टीप लें। वैसे भी इस टीपनें शब्द से तो आपकी पुरानी जान-पहचान है। लिहाज़ा ज़्यादा दिक़्कत नहीं आयेगी। लेकिन इसे फाइनल करने से पहले अपने किसी पढ़े लिखे दोस्त से (अगर कोई हो तो) ये कन्फर्म करवा लें कि उसका मतलब क्या है ?
इसके बाद आता प्रोफैशनल एक्सपीरियंस। अगर आप कुछ काम कर चुके हैं तो आपको इसे भी भरना पड़ेगा। अगर काम का ज़्यादा अनुभव नहीं है तो बेझिझक आप अपने एक्सपीरियंस को तीन से गुणा कर सकते हैं। मसलन 6 महीने हैं तो आप डेढ़ साल लिख सकते हैं। साल हुआ है तो तीन साल, और डेढ़ साल हुआ है तो पांच साल भी लिखा जा सकता है। मगर जिन लोगों के पास सचमुच ज़्यादा एक्सपीरियंस है वो इस ऑपशन को ट्राई न करें। कई बार ऐसा करने से आपका टोटल एक्सपीरियंस आपकी उम्र से भी ज़्यादा हो जाता है! लिहाज़ा ध्यान रखें। कई और फालतू बातों के अलावा आपको अपनी ताकत और कमज़ोरी भी बतानी होती है। ताकत आप कुछ भी बता सकते हैं मगर कमज़ोरी ऐसी लिखें जो आपकी ताकत ही लगे। मसलन, मुझे लगता है कि मैं बहुत भावुक इंसान हूं।
तमाम प्रपंचों के अलावा अपना एक अच्छा सा फोटो भी बॉयोडेटा के साथ लगा दें। लेकिन वो इतना अच्छा भी न हो कि इंटरव्यू लेने वाला पूछ बैठे.... आपने यहां आपने छोटे भाई की फोटों क्यों लगा दी है ?