वो अलस्सुबह दस बजे उठता है। मुंह-हाथ धोता है, जिसे वो नहाना ही समझता है। केतली-भर चाय बना बिस्तर पर बैठता है। पहले अख़बार पढ़ता है। फिर दर्शन का रुख करता है। गुरजेफ से लेकर जिब्रान तक सब पढ़ता है। वो पढ़ता जाता है और उसका तापमान बढ़ता जाता है।दोपहर होते-होते भुजायें फ़ड़कनें लगी है। भेजे के कुकर में विचारों की बिरयानी हद से ज़्यादा उबल चुकी है, रग-रग में सीटियां बज उठी हैं। उसे उल्टी करनी है। लेकिन कहां जाये? ढक्कन कैसे खोले ? दोस्त तो सभी नौकरियों (जो उसकी नज़र में छोटी) पर गये हैं।
हताशा में वो टीवी चलाता है। ख़बरिया चैनल पर रुकता है। जहां 'आज़ादी के हासिल' पर चर्चा हो रही है। इसे ख़ुराक मिल गई। लेकिन, दो मिनट में तीनों विचारक खारिज। ये सब किताबी बातें हैं, इनमें से कोई ज़मीनी हक़ीकत से वाक़िफ नहीं। वो गुस्से में 7388 पर एसएमएस करता है। सोचता है एंकर अभी मैसेज पढ़ कहेगा वाह! क्या कसीली बात लिखी है। वो इंतज़ार कर रहा है, बिना जाने की ये रिपीट टेलिकास्ट है!
इस बीच बहस बिजली समस्या की तरफ मुड़ती है। वो सीधा होता है, वॉल्यूम बढ़ाता है....सत्यानाश......तभी बिजली चली जाती है। लानत है....हासिल की बात करते हैं, 'ये' हासिल है ... बिजली की समस्या पर चर्चा सुनने लगो तो बिजली चली जाती है!ईश्वर, तू ही बता आख़िर क्या कसूर था मेरा ? तेंदूखेड़ा की बजाय मैं टोरांटो में क्यूं नहीं जन्मा ? बर्गर की जगह भिण्डी क्यूं लिखी मेरी किस्मत में ? लेकिन, तभी उसे रंग दे बसंती का डायलॉग याद आता है, सिस्टम से समस्या है तो शिकायत मत करो, उसे बदलने की कोशिश करो।
वो खड़ा होता है...सोचता है....बहुत हुआ....मैं जा रहा हूं अज्ञानता का अंधकार मिटाने, ज्ञान के दीप जलाने, होम का मोह छोड़, दुनिया के लिए खुद को होम करने।लेकिन, ये क्या....कहां हो तुम....यहीं तो थी....कहां चली गई......यहां-वहां हर जगह ढूंढ़ा... नहीं मिल रही...ख़्याल आया..कहीं छोटा भाई तो नहीं पहन गया...हां, वही पहन गया होगा...उसे तो मैं...देखते ही देखते माहौल और मूड बदलने लगा है। देश को बदल देने की 'महत्वाकांक्षा' , भाई को देख लेने की 'आकांक्षा' में तब्दील हो गई है। क्रांतिकारी का भाई, जो ज़रा नीचे दही लेने गया है, नहीं जानता कि उसने देश की उम्मीदों की दही कर दी। नाउम्मीद हुआ क्रांतिकारी फिर से बिस्तर पर जा लेटा है। तापमान गिरने लगा है, जोश भाप बन उड़ चुका है। और इस मुल्क की तक़दीर 'एक बार फिर' इसलिए नहीं बदल पाई क्योंकि क्रांतिकारी को उसकी चप्पल नहीं मिली!
गुरुवार, 12 मार्च 2009
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13 टिप्पणियां:
शानदार .....मज़ा आ गया
ख़ुदा की क़सम...? मज़ा आ गया...!
नीरज बधवार पहले तो आपकी व्यंग्यधर्मिता को बधाई. अब आते हैं रचना की धार पर.
व्यंग्य विधा दोधारी तलवार होती है, या यूं जानिए कि सर्कस की रस्सी. रचना यदि निर्लक्ष्य हो तो कोई बात नहीं. रचनाकार उसे निर्लक्ष्य भले जाने, रचना तब भी अपना लक्ष्य कर लेती है. स्वांतः सुखाय रचना एक तरह का पलायन है. आपका व्यंग्य-विषय क्रांतिकारी की चप्पल है. ऐसी चप्पल चलाते समय जरूरी था कि जैसा हम होने लायक नहीं, वैसों पर कम-से-कम इतनी मेहरबानी तो रखें ही कि उनका मजाक न बनाएं. मजाक बनाने के लिए समाज में और किस्म के कमीनों की कमी नहीं है. देहातन मां के वात्सल्य, पिता की निरक्षरता, पुत्र की बेरोजगारी, बहन की ससुराल का मजाक नहीं उड़ाया जाता है. कृपया अपने भीतर के रचनाकार तक मेरी यह छोटी-सी गुजारिश पहुंचा दें कि नब्बे फीसदी देशवासी कंप्यूटर और लैपटॉप की पहंच से दूर हैं. उनका ध्यान रखते हुए अपनी विधा और बोल का अनुशासन निभाते चले तो पठनीयता और सम्माननीय होगी.
मुंहफट जी आपकी आपत्ति मैं समझ नहीं पाया। आपका ये कहना कि जैसा हम होने लायक नहीं, वैसों पर कम-से-कम इतनी मेहरबानी तो रखें ही कि उनका मजाक न बनाएं। आपके इसी तर्क को आगे बढ़ाऊं तो जिन लेखकों को राजनीति में जाने का कोई इरादा नहीं है वो राजनेताओं पर न लिखें। परसाई जी की रचना है अतिक्रांतिकारी, इसी तरह की उनकी दूसरी रचना है कैफे में बैठे चार युवा (शायद यही नाम है)उसमें उन्होंने ऐसे ही युवाओं का ज़िक्र किया है...जिसकी चर्चा मैंनें क्रांतिकारी की चप्पल में की है।
ऐसे युवा जिन्हें लगता है आसपास सब ग़लत है। वो जानते हैं ठीक क्या है। दूसरों के ग़लत और अपने सही पर वो घंटों भाषण भी दे सकते हैं लेकिन करते कुछ नहीं। खुद की गढ़ी मजबूरियों से वो कुछ करने से ज़मानत पा लेते हैं। मतलब मैं चाहता तो हूं कि सारी दुनिया बदल दूं मगर क्या करूं चप्पल नहीं मिल रही। बाहर कैसे जाऊं,दुनिया कैसे बदलूं।
इसके अलावा नब्बे फीसदी लोगों के कम्पयूटर और लेपटॉप की पहुंच से दूर होने और मेरी विधा और बोल के अनुशासन वाली बात भी मेरी अल्पसमझ की भेंट चढ़ गई।
आप मुझ पर कुछ ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी डाल रहे हैं...किसी का ये कह देन...मज़ा आ गया...मुझमें अपराधबोध नहीं जगाता।
आपत्ति तो मेरी समझ में भी नहीं आयी। इन दस फीसदी देशवासियों में से कितनों को मज़ाक और व्यंग्य का अंतर समझ में आता है?
आपत्ति पर तो मैं आपत्ति दर्ज करता हू.. अपनी समझ के बाहर है.. हाँ ये क्रांतिकारी की चप्पल अभी दो दिन पहले ही पढ़ रहा था.. यू समझिए बीसवी बार.. उनकी फ़ुर्सत हमारी खबर भी पढ़ी और रचनात्मकता वाली पोस्ट भी पढ़ी.. बहुत बार पढ़ चुका हूँ.. और कई लोगो को पढ़वा भी चुका हूँ.. आप यूही लिखते रहे निरंतर... शुभकामनाए
bhai sahab...bilkut satik wayang hai...aur is par aapati..muzhe samaz nahi aayi..khair jo bhi...har bar ki tarah is bar bhi sirf do sabd hi hai..la zawab!
aur haan..mere blog par ane ka bahut bahut sukriy!!
अच्छा लगा नीरज जी.मैं पहले आपका टाइटल बुधवार (दिन का नाम )समझता था. लेकिन अब दोनों का अंतर समझ गया हूँ. दोनों में कोई सम्बन्ध भी है क्या?
क्रान्तिकारी को शुक्र मनाना चाहिये कि उसकी किस्मत में कम से कम भिण्डी तो लिखी है, वरना जिस गति से भिण्डी के दाम बढ़ते हैं उस हिसाब से कुछ दिनों में भिण्डी खाना एक स्टेट्स सिंबल होगा।
:)
नीरज जी बहुत मार्के की बात कही है आपने, हम सभी दूसरों को दोष देते हैं समस्याओं के लिए, सबमें कमी ढूढ़ लेते हैं बडे आराम से, पर जब समय आता है कि हम कुछ करें तो बहाने बनाने लगते हैं अपना आलस्य (अथवा कमजोर इच्छाशक्ति) को छुपाने के लिए कोइ भी बहाना बनाते हैं (चप्पल नहीं मिली)।
हम खुद तो कुछ कर नही सकते, दूसरों का साथ भी देने मे कतराते हैं, आज बाबा रामदेव CWG घोटाले के खिलाफ जाँच के लिए FIR दर्ज कराने जा रहे हैं, तो किरन बेदी जी भी घोटालों के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं, आप पर आपत्ति उठाने वाले कितने लोग उनके साथ गए? शायद उनकी भी चप्पल नही मिली।
Bahut khub dost.....kafi achha vyngya....ye aisa vyangya hai jo har kaal me samsamayik rahega....!
इसे पढ़कर मैंने खुद को एकबार आइने में देखा... लगा जैसे मैं भी किसी क्रांतिकारी से कम नहीं... धन्यवाद नीरज बाबू, अबके सीटी बजी तो कोशिश करूंगा बिना चप्पल के निकल जाऊं...
शुक्रिया रविन्द जी, राहुल और तेज़ भाई...आप सभी का धन्यावाद।
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