जब से चुनाव प्रचार शुरू हुआ है नेताओं पर इल्ज़ाम लग रहा है कि वो मुद्दों की बात न कर व्यक्तिगत छींटाकशी कर रहे हैं। बिजली,पानी, सड़क की चिंता छोड़ जाति-सम्प्रदाय की राजनीति कर रहे हैं। मगर मैं ऐसे किसी आरोप से इतेफाक नहीं रखता। मेरा मानना है कि नेता अपने भाषणों में सड़क की बात नहीं कर रहे हैं तो क्या हुआ, सड़क छाप बात तो कर ही रहे हैं। ये उनका सड़क प्रेम ही है जो वो अपने झगड़ें लेकर भी सड़क पर आ गए हैं। पानी के हालात भी भले ही चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे हों, मगर अपनी हरक़तों से तो वो लोकतंत्र को पानी-पानी कर ही रहे हैं। इसी तरह बिजली को भी उन्होंने मुद्दा नहीं बनाया तो क्या हर्ज़ है, जली-कटी, जली-भुनी और दिलजली बातें तो मुसलसल हो ही रही हैं। कचरा प्रबंधन की भी उन्हें चिंता नहीं तो ये भी माफ है, गुंडे मवालियों को टिकट दे कर वो अनजाने में ही सही 'सामाजिक कचरे' का प्रबंधन भी तो कर रहे हैं।
वहीं नेताओं की तरफ से विकास की बात न करने की बात भी मुझे हज़म नहीं होती। मेरा मानना है कि असली परफॉर्मर बात नहीं करते सिर्फ काम करते हैं। हमारे नेता भी विकास की बात न कर, सिर्फ विकास (व्यक्तिगत) करते हैं। नामांकन के दौरान घोषित उनकी सम्पति के आंकड़े देखिए ...दस करोड़ के पचास करोड़ हो गए। तीन मकान से छह मकान बना लिए। चार गाड़ियों का आदर्श परिवार भी परिवार नियोजन की धज्जियां उड़ाते हुए आठ सदस्यीय हो गया। पांच साल में क्या इतना विकास कम है। और ये भी तब जब वो इस बीच दिन-रात जनता की सेवा कर रहे थे। सेवा के इस 'हैक्टिक शेड्यूल' में अगर कोई इतना विकास 'मैनेज' कर जाए तब वो आपकी का गाली नहीं, तूसाद म्यूज़ियम में जगह का हक़दार है।
वहीं जिसे आप साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना कहते हैं दरअसल वो नेताओं के मनोरजंन करने का तरीका है। भाषण सुनते-सुनते जनता सो न जाए इसलिए वो ऐसी बातें करते हैं जिससे लोग जागते रहे। 'आप मुझे एक बार मौका दे, मैं आपके इलाके का नक्शा बदल दूगा।' ऐसी पंक्तियों की रिपीट वैल्यू अब बची नहीं। लोग कहते हैं, यार, बोर मत करो। इससे बढ़िया है कि फैज की कोई नज़्म सुना दो। कुछ नेता यहां-वहां सुना या फिर ट्रक के पीछे पढ़ा शेर सुना भी देते हैं। कोई जादूगर बुला लेता है। कोई फोक सिंगर से समां बांधने की कोशिश करता है। तो वहीं कोई नौसीखियां सनी देओल स्टाइल में कह डालता है, 'मैं हाथ काट दूंगा'। और सोचता है कि लोगों का मनोरजंन होगा। धर्म नाज़ुक मसला है। विकास बुनियादी ज़रूरत है। अब जो लोग विकास के नाम पर देश के साथ मज़ाक करते आए हैं आज वो धर्म के नाम पर मनोरजंन करने लगे हैं तो बुरा न मानें। ये सोच कर ही माफ कर दें कि उनका सैंस ऑफ ह्यूमर ही ख़राब है।
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
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6 टिप्पणियां:
ek achchha lekh ...
Badhiya Wyang.
बहुत बढ़िया लिखा है नीरज जी.
अब ऐसे लोगों से विकास वगैरह की आशा जो करेगा उसे क्या कहेंगे? लेकिन हम तो उस सदवचन पर टिके हुए लोग हैं जिन्हें अब भी विश्वास है कि; "आशा से ही जीवन चलता है."
चल भी रहा है.
बहुत बढिया लिखा है।बधाई।
"सेवा के इस 'हैक्टिक शेड्यूल' में अगर कोई इतना विकास 'मैनेज' कर जाए तब वो आपकी का गाली नहीं, तूसाद म्यूज़ियम में जगह का हक़दार है।" सत्यवचन :-)
सही कहा नीरज भाई..
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