हिंदुस्तान में रहते हुए अगर आप रचनात्मक हो गए हैं तो इसे आपका दुस्साहस ही माना जाएगा वरना तो नई सोच पर हमारे यहां इतने पहरे हैं कि लकीर के प्रति फकीरी छोड़ना बेहद मुश्किल है। यही वजह है कि घटिया चुटकुलों, वाहियात फिल्मों, बेहूदा विज्ञापनों का हमारे यहां असीम भंडार है। मगर खुशी इस बात कि है कि कुछ लोग स्तरहीनता के इस स्तर में गुणात्मक सुधार करने में बराबर लगे हुए हैं। कुछ साल पहले अगर अमिताभ की ‘झूम बराबर झूम’ आई तो उसके कुछ वक़्त बाद ही राम गोपाल वर्मा अपनी ‘आग’ ले आए। (जिसकी चपटे में आकर फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर्स ने आत्मदाह कर लिया था)
ऐसे माहौल में आपकी पाचनशक्ति को हर वक़्त नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना पड़ता है। ऐसी ही एक चुनौती से मैं कुछ रोज़ पहले वाबस्ता हुआ। दिखने में तो ये एक चप्पल का घटिया किस्म का सामान्य-सा विज्ञापन था। मगर जैसे ही इसकी पंचलाइन आई धमाका हो गया। चप्पल की तारीफ में लिखा था-आपकी सोच से भी हल्की! अगर ये निजी कटाक्ष होता तो भी इसे मैं हंस के टाल देता, लेकिन ये मेरे मेल बॉक्स में आया मेल नहीं, टीवी पर आया विज्ञापन था इसलिए समझ सकता था कि इसके चपेट में समस्त भारत आ गया है! आपकी सोच से भी हल्की चप्पल! दूसरे शब्दों में गिरी हुई चप्पल! बेहया चप्पल! लूच्ची चप्पल! चरित्रहीन चप्पल!
हल्की सोच को हम छोटी सोच के संदर्भ में लें तो एक गुंजाइश ये भी हो सकती है कि चप्पल छोटे बच्चों के लिए हो, मगर ऐसा भी नहीं था। जिस लड़की के चक्कर में मैं ये विज्ञापन देख रहा था वो तो काफी बड़ी थी। सोचता हूं मुझे जीवन में वैसे भी किसी मक़सद की तलाश थी, बाकी बची ज़िंदगी इस विज्ञापन को समझने में लगा दूं!
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
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10 टिप्पणियां:
चप्पल चरित्र की घोतक बन जाती है....यदि कोई लड़की दिखाएं तो:))
ऐसे माहौल में आपकी पाचनशक्ति को हर वक़्त नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना पड़ता है। बिल्कुल सही कहा आपने ।
इससे बेहतर मकसद हो भी क्या सकता है?
हमारी नजर में भी कई विज्ञापन हैं जिसमें एक दो जन्म खपाए जा सकते हैं।
घुघूती बासूती
बड़ी गुढ़ बात कह गये. :)
"लुच्ची चप्पल"
:)
बहुत खूब...चप्पल का विज्ञापन हमारे राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है। हल्की सोच पर हल्की सी चप्पल। पटाक।
आपकी सोच से भी हल्की!
ye to pucnh line hai ji....
मतलब सोच से "भी" हल्की........
कुंवर जी,
bahut sundar...
बलिहारी विज्ञापन बनाने वाले की....
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