दीपावली के बाद घर से लौट रहा हूं। बगल की सीट पर बीवी सो रही है। मैं उसका हाथ थामे हूं। इयरफोन लगा है। गाना चल रहा है.....यही वो जगह है...यही वो समां है...यहीं पर कभी आपसे हम मिले थे। गाना सुनते-सुनते फ्लैशबैक में चला गया हूं। कॉलेज के दिनों में ये गाना खूब सुना। सुनने की जायज़ वजह भी थी। ऐसे हालात भी उन दिनों कई बार बने। लगता था दुनिया तबाह हो गई। एक ही लड़की मेरे लिए बनी थी और वो भी नहीं मिली। मैं दुनिया में सबसे बदनसीब हूं। हे ईश्वर...तूने मेरे साथ ये क्या किया।
वहीं दिल तुड़वाने के अभ्यस्त सीनियर बताते थे कि तुम बदनसीब नहीं खुशनसीब हो। सोचो... दुनिया में तुम्हारे लिए एक ही लड़की बनी थी और 18 साल की उम्र में तुम उससे मिल भी लिए। हाऊ लकी। अगर यही लड़की किर्गीस्तान या रवांडा में रहती तो क्या करते? भगवान का शुक्रिया अदा करो। इस शैशव अवस्था में तुम अपने लिए बनी एकमात्र लड़की से मिले तो। हमें देखो....अभी तक सच्चा प्यार ढूंढ रहे हैं।
मैं समझ गया। प्यार में पड़ा आदमी जहां खुद को सबसे ज़्यादा गंभीरता से लेता है, वहीं बाकियों के लिए वो उस नमूने की तलाश ख़त्म करता है जिस पर वो हंस पाएं। रही बात घरवालों की सहानुभूति की....उसे हासिल करने के लिए ज़रूरी था कि उन्हें इस ‘हादसे’ की जानकारी होती....और जानकारी होने का मतलब था खुद के साथ उससे बड़ा हादसा होना। लिहाज़ा अकेले ही खुद पर तरस खाने के सिवा और कोई ऑप्शन नहीं था।
ऐसे में .......तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा.........टाइप गाने माहौल बनाते थे। मैं घंटों ऐसे गाने सुनता। खुद पर तरस खाता। लड़की को बेवफा मानता। दोस्तों को गद्दार, मां-बाप को रूढ़िवादी और खुद को बेचारा। जितने उम्दा बोल.. जितना दिलकश संगीत, उतनी हर पक्ष की छवि निखर कर आती थी। मतलब लड़की और बेवफा लगती और मैं और बेचारा।
बहरहाल, उम्र बढ़ती गई। दिल टूटता गया। उसी अनुपात में प्लेलिस्ट में गाने भी जुड़ते गए। मैं उस स्थिति में पहुंच गया जहां म्यूज़िक को मैंने अपना शौक बना लिया और दिल टूटने से जो शॉक मिला उसे अपना तजुर्बा।
इतने सालों बाद बीवी का हाथ थामे वही गाने फिर सुन रहा हूं। एक पल के लिए बीवी के चेहरे पर नज़र पड़ती है तो ग्लानि होती है। उन गानों को सुन आज भावुक होने पर शर्मिंदगी होती है। सोचता हूं कैसी विडम्बना है जो गाने दिल टूटने पर आसरा बने वही आज आसरा मिलने पर शर्मिंदा कर रहे हैं। इयरपीस निकालता हूं। सो जाता हूं।
शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
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7 टिप्पणियां:
समय-समय की बात है !
ऐसी भी क्या ग्लानि..ज्यादा भावुक न हों. संगीत का आनन्द लें.
कल वाला....
neeraj bhai,
jaldee hee mook sangeet bhee sunne lagenge ya shaayad gaano ko mute karke sunein.
सब वक्त वक्त की बात है जी ..यादे तो साथ ही रहती हैं
"सोचता हूं कैसी विडम्बना है जो गाने दिल टूटने पर आसरा बने वही आज आसरा मिलने पर शर्मिंदा कर रहे हैं। इयरपीस निकालता हूं। सो जाता हूं। "
....bahut khub...
नगमे हैं... किस्से हैं... बातें हैं....
अगर कहीं जेहन में कुछ यादें हैं तो याद आएँगी ही.
आपके आलेख ने न चाहते हुए भी बहुत कुछ याद करने पर मजबूर कर दिया.
कभी दोबारा से मन कुछ वैसा करेगा तो फ़िर फ़िर आकर पढूंगा इसे.
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