गुरुवार, 13 नवंबर 2008

बस अड्डे का विहंगम दृश्य (हास्य-व्यंग्य)

जब कभी बस अड्डे जाता हूं ये सवाल अक्सर ज़हन में आता है कि इस बेचारे का आखिर क्या कसूर है ? किस ग़लती की सज़ा इसे दी जा रही है ? संसद में अटका वो कौन सा विधेयक है जिसके चलते यहां झाडू नहीं लग रही ? किस साजिश के तहत देश की विकास योजनाओं में इसे शामिल नहीं किया जा रहा? आखिर क्यों ये आज भी वैसा ही है जैसा कभी राणा सांगा के वक्त रहा होगा ?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके मैं जवाब जानना चाहता हूं। मगर अभी तो ये जानना है कि जिस बस से जाना है वो कहां से चलेगी। पूछताछ खिड़की पहुंचता हूं। बावजूद ये जानते हुए कि पूछताछ खिड़की बस अड्डे में वो जगह होती है जहां लोहे की जाली के उस तरफ एक कुर्सी होती है, एक टेलीफोन, पुराना टूटा पैन भी रहता है, लेकिन वो इंसान जिसे इस नौकरी के लिए दस हज़ार महीना मिलते हैं वो नहीं होता। कैसी विडम्बना है कि मैं गया तो बस का पूछने था मगर लोगों से पूछ रहा हूं कि इन्क्वायरी विंडों वाला किधर है?
सवाल ये है कि ये इन्क्वायरी विंडों वाला आखिर किधर गया ? क्या ये आज बिना किसको बताये आया ही नहीं, क्या ये ऊपर बने किसी कमरे में आराम फरमा रहा है? क्या ये किसी कोने में बैठा बीडी फूंक रहा है? क्या पिछले दो घंटे से ये 'दो मिनट' के किसी काम पर निकला था? मुझे लगता है कि बस अड्डे पर गुमशुदा लोगों के जो इश्तेहार लगे हैं वहीं पूछताछ खिड़की के उस शख्स का भी एक इश्तेहार लगा दूं, किसी को दिखे तो बतायें!
इस बीच भूख लगती है। गर्दन घुमा कर देखतें हूं। चारों तरफ सेहत के दुश्मन बैठे हैं। कोई भठूरा बेच रहा है तो कोई पकौडा, किसी के पास गंदे तेल में तला समोसा हैं तो किसी के पास पिलाने के लिए ऐसी शिकंजी जिसमें इस्तेमाल की गई बर्फ और पानी का रहस्य सिर्फ बेचना वाला ही जानता है। इन तमाम चीज़ों की हक़ीकत जानने के बावजूद खाने-पीने के भारतीय संस्कारों के हाथों मजबूर हैं। पहले शिकंज़ी पीता हूं, भठूरे भी खाता हूं, थोड़े पकौडे भी लेता हूं और आधी-कच्ची चाय का भी आनन्द लेता हूं।
खाने पीने को लेकर दिल से उठाया गया ये कदम पेट पर भारी पड़ने लगता है। बाथरूम की तरफ लपकता हूं। दोस्तों......भारतीय बस अड्डों में शौचालय वो जगह होती है जहां सतत जनसहयोग और सफाई कर्मचारियों की अकर्मण्यता से ज़हरीली गैसों का निर्माण किया जाता है। उस पर ये भी लिखा रहता है-स्वच्छता का प्रतीक। ऐसा लगता है मानों....लोगों को चिढ़ाया जा रहा है।
खैर, सांस रोके जो करना है वो कर बाहर आता हूं। सामने बस खडी है। खुशी से झूम उठता हूं। टिकट लेता हूं। बस में बैठता हूं। सफर शुरू होता है। और कुछ ही देर में जान जाता हूं कि बस अड्डे में जो देखा वो तो ट्रेलर था, फिल्म तो अभी शुरू हुई है।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आह्ह!! भगवान दुश्मन को भी रोडवेज रकी बस में सफर करने को मजबूर न करे.

बहुत सटीक चित्रण और गहरा कटाक्ष.

महुवा ने कहा…

एक बार यूपी रोडवेज़ में सफर ज़रुर करना...एक नहीं कई पिक्चर्स मिलेंगी....
हर बार की तरह बेहद बढ़िया.

सागर नाहर ने कहा…

एकदम जीवंत चित्रण... वैसे कई शहरों में रेल्वे स्टेशन का इससे भी बुरा हाल होता है।

कुश ने कहा…

धारधार व्यंग्य है नीरज भाई..