छह महीने हो गए इस सड़क से गुज़रते। मगर पंद्रह फीट ऊपर टंगी इन लाइट्स को आज तक मैंने जलते नहीं देखा। 'न जलने' को लेकर इनमें ज़बरदस्त एकता है। एक-आध भी जलकर बगावत नहीं कर रही। शायद अब अस्तित्व बोध भी खो चुकी हैं। नहीं जानती कि इनका इस्तेमाल क्या है? इतनी ऊपर क्यों टंगी हैं? कुछ पोस्ट, जो आधे झुके हैं, लगता है अपने ही हाल पर शर्मिंदा है।
हमारे यहां ज़्यादातर लैम्प पोस्ट्स की यही नियति है। लगने के बाद कुछ दिन जलना और फिर फ्यूज़ हो, खजूर का पेड़ हो जाना! वक़्त आ गया है कि देश के तमाम डिवाइडरों से इन खम्बो को उखाड़ा जाए। विकसित देशों को संदेश दिया जाए कि विकास के नाम पर तुमने बहुत मूर्ख बना लिया। व्यवस्था के नाम पर तुम्हारे सभी षडयंत्रों को हम तबाह कर देंगे। वैसे भी व्यवस्था इंसान को मोहताज बनाती है। उसकी सहज बुद्धि ख़त्म करती है। हम हिंदुस्तानी हर काम अपने हिसाब से करने की आदी हैं। व्यवस्था में हमारा दम घुटता है। हमें मितली आती है।
हमने तय किया है कि स्ट्रीट लाइट्स के बाद हम ज़ैबरा क्रॉसिंग को ख़त्म करेंगे। वैसे भी जिस देश में नब्बे फीसदी लोगो ने कभी ज़ैबरा नहीं देखा वहां किसी व्यवस्था को ज़ैबरा से जोड़ना स्थानीय पशुओं का सरासर अपमान है। आवारा पशुओं की हमारे यहां पुरानी परम्परा है। क्या हम इस काबिल भी नहीं है कि हमारे पशुओं में ऐसी कोई समानता ढूंढ पाएं। सड़क पर घूमते किसी भी दो रंगें कुते को ये सम्मान दे उसे अमर किया जा सकता है।
इसके अलावा ट्रैफिक सिग्नल्स भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ है। क्या ये सिग्नल्स हमें बताऐंगे कि कब जाना और कब नहीं। इंसानों में जब तक संवाद कायम है उन्हें मशीन के हाथों नियंत्रित नहीं होने चाहिए। वैसे भी गालियों का हमारा शब्दोकोष काफी समृद्ध है। ईश्वर और पुलिस से ज्यादा यही गालियां हमारा साथ देती आई हैं। तेरी....तेरी.....
बीच सड़क में बैठी गाय के साइड से निकाल, सामने आते ट्रक से बच, पीछे बजते हॉर्न को बर्दाश्त कर, खुले ढक्कन वाले गटर के चंगुल से निकल हम अक्सर ही घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते जाते रहे हैं। और उस पर भी हमारा ज़िंदा होना इस बात का सबूत है हम किसी स्ट्रीट लाइट, ज़ैबरा क्रॉसिंग और ट्रैफिक सिग्नल के मोहताज नहीं। दुनिया वालो तुम्हारी व्यवस्था तुम्हें मुबारक! भगवान के लिए हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।
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6 टिप्पणियां:
अंतिम पाँच लाइने जबरदस्त है... कमाल का व्यंग्य..
too good....
as usual......:-)
वैसे भी उन्होने हमें अपने हाल पर ही तो छोड़ा हुआ है।
मजेदा व्यंग्य।
शानदार!
और कुछ लिखने के लिए शब्द नहीं हैं.
bahi mere hisab se to isko Times of India ya Indian Express,Hindustan Time jaise akhbaar ke front page ya Editorial page pe chapna chahiye..
lekh pasand karne ke liye shukriya. fighter bhai lekh last month dainik hindustan me chap chuka hai. vaise yahan diye sabhi lekh pehle alag-alag akhbaron me chap chuke hai.
aur ye batane ke peechai sirf itna maqsad hai ki aap jaan payen ki hindi akhbaron me content ka level kitna gir gaya hai!
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