बुश पर हुई जूतेबाज़ी को लेकर अप्रत्याशित यही लगा कि किसी ने इसे अप्रत्याशित नहीं माना, यहां तक कि बुश ने भी! मानों वो इसे एंटीसिपेट कर रहे थे। दुनिया को 'उम्मीद' और उन्हें 'आशंका' थी कि ऐसा हो सकता है। जिस सफाई से वो जूते डक कर गए, ये किसी नौसीखिए का काम नहीं था। भला आदमी तो खा बैठता। गावस्कर भी ऐसी सफाई से बाउंसर डक नहीं कर पाए, जैसे बुश जूता कर गए। चारों तरफ वाह! वाह! हो उठी। सब ने एक सुर में कहा....डक इट लाइक बुश।
ख़बर तो ये है कि कुछ समय से वो जूते डक करने की बाकायदा प्रेक्टिस कर रहे थे। उन्हें बता दिया गया था कि सर, कभी भी पड़ सकते हैं, आप तैयारी रखिए। आख़िर वो शुभ घड़ी बगदाद में आ ही गई। बुश की बत्तीसी पर निशाना साधते हुए किसी ने दो जूते फेंके। मगर बुश ने झुक कर उन्हें खाने से मना कर दिया।
उठ कर उन्होंने कहा कि मुझे इसमें हैरान करने लायक कुछ नहीं लगा...बस उस एक पल....पहली बार... वो बाकी दुनिया से सहमत दिखे। उन्हें जूते पड़ने चाहिए, इस पर वे भी सहमत थे और दुनिया भी। मगर इससे पहले कि मैं उनकी ईमानदारी को सलाम करता उन्होंने जोड़ दिया कि राजनीतिक सभाओं में भी ऐसा हो जाता है। कुछ लोग ध्यान खींचने के लिए भी ऐसा करते हैं।
यहीं सारा कबाड़ा हो गया। मतलब उन्हें जूता 'अपनी योग्यता' की वजह से नहीं, किसी 'उन्मादी के चर्चा पाने की उत्कंठा' की वजह से पड़ा। मैं समझ गया की 'अंतरदृष्टि दोष' के चलते नेता अपने गिरेबां में झांक नहीं पाते हैं और दुविधा ये कि आत्मा में झांकने का कोई चश्मा बना नहीं।
खैर, इस घटना पर भारतीय नेताओं की भी प्रतिक्रिया देखी गई। इन तस्वीरों के दिखाए जाने के बाद एक नेता जी न्यूज़ चैनल्स से काफी नाराज़ दिखे। उनका आरोप था कि मुम्बई हादसे के बाद उन लोगों (नेताओं) के जूतियाने की सम्भावना बढ़ी हुई है। कुछ का तो जूत्यार्पण हो भी चुका है। जनता छू के इंतज़ार में है। ऐसे में चैनल्स ये सब दिखा जनता को और भड़का रहे हैं। कुछ चैनल्स ने तो ओपिनियन पोल्स तक चलवा दिए "आप नेता से ज्यादा नफरत करते हैं, या जूते से ज्यादा प्यार।" एक ने तो कार्यक्रम का नाम ही रख दिया "ये चूका, आप न चूकें।"
बोलते-बोलते नेता जी आपा खो बैठे- कहा-ये टीवी वाले ऐसे नहीं सुधरने वाले। इन्हें तो जूते पड़ने चाहिए...तभी किसी ने होशियार किया....सर जी, ख्याल रखना....बुश को जूता मारने वाला टीवी पत्रकार ही था। इतनी मंदी में जूता फेंक दिया...सोचो...कितना भरा बैठा होगा।
बुधवार, 17 दिसंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
kaash aisa kabhi hamre yahan bhi dekhne ko mile :)
'अंतरदृष्टि दोष' के चलते नेता अपने गिरेबां में झांक नहीं पाते हैं और दुविधा ये कि आत्मा में झांकने का कोई चश्मा बना नहीं।
Waah ! kya baat kahi aapne.....solho aane sach.
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