बुधवार, 30 अप्रैल 2008

ये था स्टार स्पिनर का ‘तीसरा’! (हास्य-व्यंग्य)

मोहाली टीम की आईपीएल में यह पहली जीत थी। प्रीति जिंटा मैदान में आती हैं। ब्रेट ली को गले लगाती हैं, बाकी खिलाड़ियों से हाथ मिलाती हैं। खिलाड़ी भी एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं। मोहाली के दर्शक भी खुश हैं। तभी कैमरा श्रीशांत पर पड़ता है। वो रो रहे हैं। मैं समझा नहीं रो क्यों रहे हैं, प्रीति ने उन्हें हग नहीं किया इसलिए? नहीं, नहीं, ऐसी बात होती तो बाकी खिलाड़ी भी रो रहे होते, मगर वो तो श्रीशांत को चुप करवा रहे हैं। ध्यान खींचने के लिए श्रीशांत की ओवर एक्टिंग से सभी वाकिफ हैं। मगर इसके लिए रोना और वो भी इस मौके पर? ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की धारा तीन बी के तहत इस वक्त उन्हें डांस करना चाहिए, मगर वो रो रहे हैं। बहरहाल, उन्हें रोता छोड़ मैं सो गया। सुबह अखबार देखा तो बड़े-बडे़ अक्षरों में हैडलाइन थी- 'हार से बौखलाए भज्जी ने श्रीशांत को थप्पड़ मारा।' एक हाथ में मैंने अखबार पकड़ा था, दूसरे से माथा पकड़ लिया। बेड़ा गर्क, भज्जी मेरे भाई! ये तुमने क्या कर दिया? अचानक सिडनी टेस्ट मेरी आंखों के आगे घूम गया। घूम गया तुम्हारा सायमंड्स को मंकी कहना। एक-एक ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी का चेहरा, वो दलीलें जो तुम्हें बदतमीज साबित करने के लिए उन्होंने दी थीं। और वो तर्क जो तुम्हें मासूम बताने के लिए हमने जुटाए थे। श्रीशांत को रसीद किए गए थप्पड़ की गूंज के साथ-साथ तमाम बातें मेरे कानों में ईको करने लगीं। दिल कर रहा था कि धरती कानपुर के विकेट की तरह फट जाए और मैं श्रीशांत के साथ उसमें समा जाऊं। तुम्हारी हालिया करतूत ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। ऑस्ट्रेलिया के काफी खिलाड़ी अभी इंडिया में हैं। उनमें से एक भी अब अगर आकर कह दे कि हमने नहीं कहा था, ये तो है ही बदतमीज, तो बताओ भला हम कहां जाएंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें? मिडल स्कूल से लेकर हाई स्कूल तक के तुम्हारे तमाम करैक्टर सर्टिफिकेट हमने उन्हें दिखाए थे और गली के झगडे़ में बच्चे का पक्ष लेने वाली मां के स्टाइल में कहा था- हमारा लड़का ऐसा कर ही नहीं सकता। मगर हमारे लड़के ने तो हमें भी सरप्राइज कर दिया। अब तक हम सोचते थे कि क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में दो ही काम करने जाते हैं, खेलने और गाली-गलौज करने। मगर तुमने थप्पड़ के रूप में क्रिकेट की दुनिया को एक 'तीसरा' भी दे दिया है। हर दूसरा खिलाड़ी इस 'तीसरे' का इस्तेमाल करने लगे तो क्रिकेट शरीफों का खेल कहां रह जाएगा। मैदान में खेल कम होगा और लट्ठ ज्यादा चलेंगे। ऑस्ट्रेलियाई तो हमेशा से ही स्लेजिंग यानी छींटाकशी के हिमायती रहे हैं। सोचो, अगर सायमंड्स और हेडन जैसे प्लेयर्स मारपीट को भी जायज मानने लगें तो विपक्षी खिलाड़ी कहां जाएंगे? तुम खुद कहां जाओगे? थप्पड़ की सफाई में तुम्हारा कहना है कि हम सब परिवार की तरह हैं और परिवार में ये सब होता रहता है। दिल कर रहा है कि तुम्हारी इस दलील पर मैं खुद को थप्पड़ मारूं कि आखिर ये सब मैंने क्यों सुना? भज्जी, अगर तुम सब परिवार की तरह हो, तब भी घरेलू हिंसा कानून के तहत तुम पर मामला तो बनता ही है। मुझे अफसोस है कि जिस सहज प्रवृत्ति से तुम झगड़ा करते हो, उसी सहजता से बहाने नहीं बना पाते। सायमंड्स मामले पर भी तुमने कहा था कि मैंने इसे मंकी नहीं कहा बल्कि मां की गाली दी थी। ऐसा कहकर तुमने कौन सा उसका माल्यार्पण किया था? ये तो और भी शर्म की बात थी। अब तक तुम अपने 'दूसरे' से विपक्षी बल्लेबाजों को चकमा देते रहे हो, लेकिन थप्पड़ के तौर पर जो 'तीसरा' तुमने फेंका है, इससे तो पूरी की पूरी खेल भावना ही चकमा खा गई है। भज्जी, अब भी वक़्त है सुधर जाओ, इससे पहले कि तुम क्रिकेट की दुनिया के राखी सावंत बन जाओ!

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

वैयक्तिकता! (individuality)

समाज (एक)

किरदार

समाज पूछता है
ग़र मैं उसका हिस्सा हूं
तो बताऊं
मेरा किरदार क्या है
और मेरे संवाद क्या


समाज कुरेदता है
पर मैं चुप हूं
मुझे बोलना होगा
अपने लिबास दिखाने होंगे
अपना किरदार बताना होगा
और ये भी ज़ाहिर करना होगा
कि मेरी पसन्द क्या है
और नापसन्द क्या


मगर मैं क्या करूं, किस सम्त (तरफ) जाऊं
रंगमंच के तमाशे से हमेशा बचा हूं
अदाओं की अय्यारी से हमेशा डरा हूं
रिश्तों के सुनहरे रेशों में कई बार फंसा हूं


नहीं जानता क्या करूं
मगर ये समाज है कि
मुसलसल पूछता है,
मेरा किरदार क्या है
और मेरे संवाद क्या


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समाज (दो)

होना (Being)


लोग कहते हैं

तुम बोलते बहुत हो

हँसते ज़्यादा हो

संजीदा नहीं हो

सॉफिस्टिकेटिड नहीं हो

संतुलन की कमी है

मज़ाक़ में कहें तो

तुममें एडिटिंग की
सख़्त ज़रूरत है

ये सब हो जाये

तो तुम बेहतर
हो जाओ

सोशल हो जाओ

या फिर एक्सेप्टेबल हो जाओ

प्रिय...गुज़ारिश है

मत मानना लोगों की बात
जो हो बने रहना

इस समाज ने पहले भी बहुत से
इंसान ख़त्म किये हैं।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

रिश्ते भी अगर ब्रेंडिड हो जाएं!

टूथपेस्ट के विज्ञापन अमूमन बताते हैं कि ये कीटाणुओं से आपके दांतों की रक्षा करता है, मसूड़े मज़बूत बनाता है, सांसों में ताज़गी रखता है और ये तमाम तरह के साइज और रंगों में मौजूद है। मगर पिछले दिनों टूथपेस्ट का जो विज्ञापन मैंने देखा, वो बताता है कि इसमें नमक है! सुभानअल्लाह!!! टूथपेस्ट खरीदते वक़्त आप भी सोचते हैं ताज़गी और सफाई तो सभी देते हैं, अगर बीस रूपये में नमक भी मिल रहा है तो बुराई क्या है?

आज जब एक आदमी की दूसरे से उम्मीद घटती जा रही है, बाज़ार से लगातार उसकी उम्मीदें बढ़ती जा रही है। टूथपेस्ट में तो वो नमक चाहता है और बेटे से उम्मीद नहीं कि घर लौट कर पूछ ले कि पिताजी आज दिन कैसा रहा? रिश्तों से रिटर्न नहीं मिल रहा है, यही वजह है कि उनमें इनवेस्टमेंट भी कम हो गई है!

ऐसे में बड़ी कम्पनियां अपनी गुडविल का फायदा उठाते हुए रिश्ते बेचना भी शुरू कर दें। चमाटा कम्पनी को चाहिये कि वो एक लाख की कार के बाद, पचास हज़ार का पति भी ले आये। टीवी पर पति का विज्ञापन आ रहा है। मॉडल कह रहा है मैं चमाटा कम्पनी का सस्ता, सुंदर और मूर्ख पति हूं। मेरी सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि मैं मूर्ख हूं। मेरा पास अपना दिमाग नहीं। जैसा मुझे कहा जायेगा मैं वैसा ही करूंगा। मेरी दूसरी ख़ासियत है कि मैं सुंदर हूं। 'बेवकूफ' और 'हैंडसम’ पति का ऐसा 'डैडली कॉम्बीनेशन' आपको किसी और कम्पनी में नहीं मिलेगा। मार्केट में जब साथ चलूंगा तो आपका ईगो सैटिस्फाई करूंगा। मैं पन्द्रह सौ रूपये मासिक की आसान किस्तों में 'मनी बैक गारंटी' के साथ उपलब्ध हूं। पसंद न आने पर डाउन पेमंट वापिस, और किस्ते बंद!

मेरी आंखों के सामने सीन क्रिएट हो रहा है। महिला पति को काउंटर पर पटकते हुए दुकानदार को डांटती है, कैसे पति बेचते हैं आप ? दुकानदार घबराता है। क्या हुआ मैडम...होना क्या है....कितनी आवाज़ करता है ये! दुकानदार घबराता हुआ ....मैडम रसीद दिखायें। रसीद देखते हुए, स़ॉरी मैडम वैलीडिटी तो निकल गई, पीस तो चेंज नहीं कर सकते। महिला-फिर क्या कर सकते हैं.....दुकानदार थोड़ा रूकते हुए..... आप कहें तो इनमें साइलेंसर लगा दें! महिला उछलते हुए-हां ये बढ़िया रहेगा, लगा दो!

सच....रिश्तों की आज जो हालत है उनका बाज़ार भाव तब ही सुधर सकता है, जब बड़ी कम्पनियां उन्हें बेचने लगे और वो ब्रेंडिड हो जायें! हुंडई हसबैंड, वोडाफोन वाइफ, टाइटन आंटी और कोडैक अंकल! वाह! कितनी ब्रेंडिड फैमिली होगी!

तबीयत नहीं, नीयत है ख़राब! (हास्य-व्यंग्य)

ऑफिस पहुंचा तो पता चला वो आज भी नहीं आ रहीं। सुबह फोन कर उन्होंने बताया कि 'अचानक' उनकी तबीयत ख़राब हो गई। इस हफ्ते दूसरी बार उनकी 'अचानक' तबीयत खराब हुई है। और अगर मैं ठीक हूं तो पिछले एक साल में 63 बार 'अचानक' तबीयत खराब होने की वजह से वो छुट्टी ले चुकी हैं। 'अचानक' की इस कंसिस्टेंसी से मैं हैरान हूं। संडे की उनकी छुट्टी रहती है और इसे 'इतेफाक' ही कहा जायेगा कि या तो वो शनिवार को बीमार पड़ती हैं या सोमवार को। और ये 'इतेफाक' भी अब इतनी बार हो चुका है कि इसकी हम भविष्यवाणी तक कर सकते हैं!

उनकी इस बीमारी पर बहुत से लोगों ने रिसर्च की मगर हाथ कुछ नहीं लगा। लोग समझ नहीं पा रहे ‘वीकली बेसिस’ पर आने वाली ये कौन सी बीमारी है जो जितनी तेज़ी से उन्हें अपने आगोश में लेती है, उतनी ही जल्दी छोड़ भी देती है। हंसती-खेलती वो ऑफिस से जाती हैं, हंसती-खेलती ही लौटती हैं। इस बीच वो बीमार पड़ती हैं और रिकवर भी कर जाती हैं!

हममें से बहुतों की तमन्ना है कि हम भी इस तरह ‘अचानक’ बीमार पड़ें, मगर ज़्यादातर इसे अफोर्ड नहीं कर सकते। वजह, इस तरह बीमार पड़ने के लिए बॉस से मेल बढ़ाना पड़ता है और अगर आप मेल हैं, और आपका बॉस भी मेल है तो ये मेल कभी नहीं बढ़ सकता है। आप रियलाइज़ करते हैं कि जिस समाज में महिला उत्पीड़न की इतनी बात की जाती है, वहां आदमी की 'असल औकात' ये है कि वो ज़रा-सा झूठ बोल एक टु्च्ची बीमारी भी अफोर्ड नहीं कर सकता!

पूरी स्थिति पर मैंने एक ईमानदार चिंतन किया और सोचा कि मेरी असल तकलीफ क्या है ? क्या मैं अचानक बीमार नहीं पड़ सकने की अपनी ‘सीमा’ से परेशान हूं या मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं बॉस नहीं हूं? बहुत सोचने पर निष्कर्ष निकाला कि भाषा को लेकर मेरा प्यार ही मेरी असली पीड़ा है।

मुझे 'अचानक' और 'इतेफाक' शब्दों के खिलाफ षड्यंत्र की बू आ रही है। 'अचानक' शब्द के साथ अगर कंसिस्टेंसी जुड़ जायेगी और इतेफाक के बारे में भविष्यवाणी होने लगेगी तो इन दोनों शब्दों का अस्तित्व ही मिट जायेगा। नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। मगर मैं कर भी क्या सकता हूं?

अपने ब्लॉग के माध्यम से (अगर कोई पढ़ रहा है तो) मैं सरकार से निवेदन करना चाहता हूं कि ऐसे लोग जिनकी 'अचानक' तबीयत ख़राब होती है, दरअसल इनकी तबीयत नहीं, नीयत ख़राब होती है। इसलिए मेरी गुज़ारिश है कि कि इन लोगों की 'नीयत' को इनकी तबीयत का हिस्सा माना जाये, और जब भी इनकी नीयत ख़राब हो इन्हें इस आधार पर छुट्टी लेने का हक़ दिया जाये कि इनकी तबीयत ख़राब है। मतलब नीयत ख़राब होने पर इन लोगों को मेडिकल लीव दी जाये। इस तरह इनका काम भी हो जायेगा और भाषा की गरिमा भी बनी रहेगी।

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

उनकी फ़ुरसत, हमारी ख़बर! (हास्य-व्यंग्य)

नमस्कार! मैं हूं अज्ञानसागर...स्वागत है आपका हमारे ख़ास कार्यक्रम 'उनकी
फुरसत, हमारी ख़बर' में। आस्ट्रेलिया से लौटने के बाद क्या कर रहे हैं टीम
इंडिया के सितारे अगले एक घंटे में हम इसका जायज़ा लेंगे।
तो सबसे पहले हम रुख करेंगे दिल्ली का, जहां मौजूद हैं हमारे संवाददाता
धुरंधर सिंह। हां तो धुरंधर बताएं। जी अज्ञान... इस वक़्त मैं मशहूर हेयर
स्टाइलिस्ट 'जा-बे' हबीब के सैलून के बाहर खड़ा हूं। अभी-अभी युवा तेज़
गेंदबाज़ प्रशांत शर्मा अंदर गए हैं। उनके यहां आने को लेकर मतभेद बना
हुआ है। कुछ का कहना है कि वो कटिंग करवाने आए हैं, तो कुछ का कहना
है शेव करवाने। वहीं ऐसे भी लोग हैं जिनका मानना है कि उन्नीस साल की
उम्र में शेव तो उनके ढंग से आई नहीं, वो यहां ज़ीरो नम्बर मशीन फिरवाने
आए हैं।
लेकिन अज्ञान, सूत्रों से जो ख़बर हमें मिल रही है उसके हिसाब से वो यहां
'आईब्रो' बनवाने आए हैं। सूत्र बताते हैं कि जो मीडिया कम्पनी प्रशांत का
बिज़नेस प्रमोशन देख रही है उसे लगता है कि प्रशांत गेंद फेंकने के बाद
बल्लेबाज़ को देखते हुए जब आईब्रो रेज़ करता है, तो उसकी 'स्क्रीन प्रजेंस'
कुछ ठीक नहीं आती। इसीलिए कम्पनी ने प्रशांत को सलाह दी है कि अच्छा
हो अगर वो आईब्रो बनवा लें!
तभी अज्ञान बीच में काटते हुए...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या इतनी कम
उम्र में उन्हें आईब्रो बनवानी चाहिए? मैं 'पर्सनल एक्सपीरियंस' से बता सकता
हूं कि अगर एक बार आप धागा लगवा लें तो हर पन्द्रह दिनों में नाई के पास
जाना पड़ता है।
इस बारे में दर्शकों से जानना चाहेंगे कि क्या उन्नीस साल की उम्र में प्रशांत
शर्मा को आईब्रो बनवानी चाहिए? आप अपने जवाब 'हां' या 'ना' में स्क्रीन पर
दिये नम्बर पर भेज सकते हैं।
और आइये अब रूख करते हैं टीम इंडिया के कप्तान महेन्द्र सिंह 'सो-नहीं' के
शहर रांची का, जहां मौजूद हैं हमारे संवाददाता मुफ़्तलाल। तो मुफ़्तलाल
बताएं क्या ख़बर है? दीपक, इस वक़्त मैं रांची के मेन मार्केट में मौजूद हूं
जहां टीम इंडिया के कप्तान महेंन्द्र सिंह 'सो-नहीं' अपने भाई के साथ दही
खरीदने आए हैं।हमने जब उनसे पूछा कि दही खरीदने वो बाज़ार क्यों आए हैं, तो उनका
कहना था कि दही के मामले में मैं काफी चूज़ी हूं, इसलिए दही खरीदने खुद
ही बाज़ार आता हूं और जब उनसे पूछा गया कि आपकी माताजी घर पर दही
नहीं जमातीं तो उन्होंने हंसते हुए बताया कि आप तो जानते हीं हैं कि मैं दूध
का कितना शौकीन हूं। सारा दूध ऐसे ही पी जाता हूं.. दही जमाने लायक
बचता ही नहीं।
लेकिन अज्ञान मैं आपको बताना चाहूंगा कि उन्होंने ये बताने से साफ इंकार
कर दिया कि वो इस दही का आख़िर करेंगे क्या?
अज्ञान फिर बीच में कूदता है, तो मुफ्तलाल आपका कहना है कि 'सो-नहीं' ने
ये बताने से साफ इंकार कर दिया है कि वो दही का क्या करेंगे? ये तो अपने
आप में बड़ी ख़बर है।
चलिए हम दर्शकों से ही पूछते हैं ....आप बताएं क्या लगता है आपको कि
महेन्द्र सिंह 'सो-नहीं' जो दही ले कर आएं है उसका वो क्या करेंगे? इसके
लिए आपके पास चार आप्शंस हैं।
आप्शन ए क्या वो इस दही का बूंदी वाला रायता बनाएंगे? आप्शन बी क्या
वो दही को मिक्सी में फेंटकर उसकी लस्सी बनाएंगे? आप्शन सी क्या वो
दही की कढ़ी बनाएंगे? आप्शन डी क्या वो बालों को मुलायम करने के लिए
उसे सिर में लगाएंगे?
आप अपने जवाब हमें आज शाम सात बजे तक हमारी वेबसाइट 'उनकी
फुरसत हमारी ख़बर' डॉट कॉम पर ईमेल के ज़रिए भेज सकते हैं। इसके
अलावा आप फलां नम्बर पर एसएमएस भी कर सकते हैं या फलां नम्बरों पर
कॉल कर सकते हैं। और फोन पर अगर आप पैसे बर्बाद न करना चाहें तो
हमें मिस कॉल कर सकते हैं, हमारा लड़का आपको पलट कर कॉल कर लेगा।

नोट-(यह लेख पहले indiabol.blogspot.com पर पोस्ट हो चुका है।
अपने ब्लॉग पर पहली दफा डाल रहा हूं।)

मच्छर को बनाएं राष्ट्रीय कीट (हास्य-व्यंग्य)

भारत में हम जिस भी चीज को राष्ट्रीय महत्व से जोड़ते है, बाद में उसका बेड़ा गर्क हो जाता है। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है लेकिन देश में कुछ लोग सिर्फ इसलिए कत्ल किए जा रहे हैं कि वे हिंदी भाषी हैं। इसे न बोलना ही आज गर्व का विषय हो गया है। मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है और आज हालत यह है कि मोर बिरादरी जेड श्रेणी की सुरक्षा मांग रही है। हॉकी के एनकाउंटर के लिए भले ही गिल क्रेडिट ले रहे हों, लेकिन हॉकी की शहादत के पीछे असली वजह उसका राष्ट्रीय खेल होना ही है। वहीं खुद को राष्ट्रपिता का वारिस बताने वालों ने साठ साल से ' गांधी ' को तो पकड़ रखा है, लेकिन ' महात्मा ' को भूल बैठे हैं।
मतलब पहले किसी भी चीज को सिर-आंखों पर बैठाओ, फिर सिगरेट के ठूंठ की तरह पैरों तले मसल दो। मेरा मानना है कि जब यह सिद्धांत इतना सीधा है तो क्यों न हम तमाम बड़ी समस्याओं को राष्ट्रीय महत्व से जोड़ दें, वे खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगी। इस दिशा में हमें सबसे पहले मच्छर को राष्ट्रीय कीट घोषित करना चाहिए।
सरकार घोषणा करे कि राष्ट्रीय कीट होने के नाते मच्छरों का संरक्षण किया जाए। उसे ' गंदगी बढ़ाओ, मच्छर बचाओ ' टाइप कैम्पेन चलाने चाहिए। निगम कर्मचारियों को आदेश दिए जाएं कि वे अपनी अकर्मण्यता में सुधार लाएं। जिस गली में पहले हफ्ते में दो बार झाडू लगती थी, वहां महीने में एक बार से ज्यादा झाडू न लगे। गंदगी बढ़ाने के लिए पॉलिथीन के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया जाए ताकि अधूरी चौपट सीवर व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो पाए। गटर-नालियां जितने उफान पर होंगी, उतनी तेजी से मच्छर बिरादरी फल-फूल पाएगी। मच्छर को चीतल के समान दर्जा दिया जाए और प्रावधान किया जाए कि एक मच्छर मारने पर पांच साल का सश्रम कारावास और दो लाख का आर्थिक दण्ड दिया जाएगा। कानून का आम आदमी में खौफ पैदा करने के लिए ' एक मच्छर आदमी को जेल भिजवा सकता है ' टाइप थ्रेट कैम्पेन भी चलाए जाएं। इसके लिए किसी बड़े स्टार की सहायता ली जा सकती है।
किसी सिलेब्रिटी को मच्छर अम्बेसडर घोषित किया जा सकता है। आप इसे कोरी बकवास न समझें। आपको जानकर हैरानी होगी कि जब इस योजना को मैंने सरकार के सामने रखा तो उसने फौरन देश के 156 जिलों में प्रायोगिक तौर पर इसे लागू भी कर दिया और जो नतीजे आए वे बेहद चौंकाने वाले थे।
निगम कर्मचारियों तक जैसे ही सरकार का फरमान पहुंचा उनका खून खौल उठा। उन्होंने तय किया कि अब वे कभी अपनी झाडू पर धूल नहीं चढ़ने देंगे। जो कर्मचारी पहले सड़क पर झाडू नहीं लगाते थे, वो खुंदक में अपने घर पर भी सुबह-शाम झाडू लगाने लगे। वहीं पॉलिथीन का ज्यादा इस्तेमाल करने के सरकारी आदेश के बाद महिलाएं पति की पुरानी पैंट का थैला बनाकर बाजार से सामान लाने लगीं। शाही घरानों के़ लड़कों ने, जो पहले जंगल में शेर का शिकार करने जाते थे, अब जीपों का मुंह शहर के गटरों की तरफ कर दिया। अब वह बंदूक के बजाय शिकार पर बीवी की चप्पलें ले जाने लगे और उनसे चुन-चुनकर मच्छर मारने लगे। इस सबके बीच उन लोगों की मौज हो गई जो एक वक्त कमजोर डील-डौल के चलते मच्छर कहलाते थे, अब वो इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेने लगे।
खैर, नतीजा यह हुआ कि लागू करने के महज तीन महीने के भीतर ही योजना बुरी तरह फ्लॉप हो गई और सभी 156 जिले पूरी तरह मच्छरों से मुक्त करवा लिए गए। योजना की असफलता से उत्साहित कुछ लोगों ने प्रस्ताव रखा है कि इसी तर्ज पर भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय आचरण और दलबदल को राष्ट्रीय खेल घोषित किया जाए। इसी तरह 'अतिथि देवो भव' का स्लोगन बदलकर 'अतिथि छेड़ो भव' किया जाए। ऐसा करने पर ही इन समस्याओं से मुक्ति मिल पाएगी।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

महंगाई से निपटने के कुछ उपाय! (हास्य-व्यंग्य)


बताने की ज़रुरत नहीं है कि सरकारें करने का नहीं कहने का खाती है। और आज जब महंगाई के चलते आम आदमी का खाना मुश्किल हो रहा है, सरकार बहानेबाज़ी के फ्रंट पर भी मुंह की खा रही है। उससे कुछ भी कहते नहीं बन रहा। आख़िर क्या हो गया हमारे नेताओं की रचनात्मकता को? ‘जादू की छड़ी नहीं है’, टाइप एक आध बयान आए भी लेकिन बात बनी नहीं। लालू जी ने भी महंगाई के पीछे बीजेपी समर्थित व्यापारियों का हाथ बताया, लेकिन ये बात भी विपक्ष पर हमला कम और ‘एसएमएस जोक’ ज़्यादा लगी। बहरहाल, सरकार का ये आत्मसमर्पण मुझसे देखा नहीं जा रहा और मैंने तय किया है कि इस बारे में उसकी कुछ मदद करुं। मैं जानता हूं वो महंगाई से जनता को तो नहीं बचा सकती। लेकिन मेरी सलाहें मान ले तो वो महंगाई से ‘खुद को’ ज़रुर बचा सकती है।

1-कुछ लोगों का कहना है कि सरकार को महंगाई की ख़बर इतनी देर से इसलिए लगी क्योंकि ज़्यादातर सांसद और विधायक तो संसद और विधानसभा की कैंटीनों में भयंकर सब्सिडी वाला खाना खाते हैं। उन्हें लगता रहा कि जितना सस्ता खाना यहां मिलता है उतना ही बाहर भी मिलता होगा। बहरहाल, मेरा सरकार से निवेदन है कि वो अपनी तमाम सांसदों को आदेश कि संसद का सत्र शुरु हो चुका है। इसलिए जितने दिनों तक सत्र चले वो रोज़ाना पचास सौ लोगों का खाना संसद की कैंटीन से पैक करवा कर ले जाएं। और टिफिनों में भर-भर कर अपने-अपने इलाकों में पुहंचाए। हो सकता है खाना पहुंचने तक ठंडा हो जाए लेकिन इस पर भी लोग नाराज़ नहीं होंगे। अब आप बताएं जिनके लिए खाने की याद तक बासी हो चुकी हो, वो भला बासी खाने की क्या शिकायत करेंगे!

2-अंत्योदय योजना की तरह एक ‘केलेंडर और पोस्टर योजना’ शुरु की जाए। लोग सब्ज़ियों की शक़्ल न भूल जाए इसलिए इनके पोस्टर छपवा कर घर-घर पहुंचाए जाएं। इसके पीछे मक़सद यही हो कि मंहगाई में आप भले ही शिमला मिर्च खा न सकें, कम से कम रसोई में इसका पोस्टर तो लगा सकते हैं। पोस्टर छपवाने में ज़्यादा खर्चा न आए इसके लिए हर इलाके में उसी कम्पनी से करार किया जाए जो किसानो की कर्ज़माफी के बड़े-बड़े होर्डिंग्स छाप रही है। इससे डिस्काउंट मिलेगा। साथ ही सब्ज़ियों और दालों की तस्वीरों वाले केलेंडर भी राशन की दुकानों पर उपलब्ध करवाये जाएं। ताकि रेहडी पर सब्ज़ियां देख आम आदमी नोस्टैलजिक फील न करे और महीना बदलने का साथ ही वो कलेंडर में ‘आंख का ज़ायका’ भी बदल सके।

3-सब्ज़ियों के साथ-साथ दूध भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है। बड़ों की तो विशेष बात नहीं, बच्चों को इसकी ख़ासी ज़रुरत होती है। ऐसे में सरकार पोलियो ड्राप्स की तरह ‘दूध ड्राप्स’ पिलाने के लिए मिशन दूध शुरु करें। महीने में एक दिन तय करे जब लोग अपने बच्चों को नज़दीकी केन्द्रों पर ले जा कर दूध ड्राप्स पिलवायें। और लगे हाथ चाय के लिए कुछ बूंदें साथ ले आएं। इसका स्लोगन भी ‘दो बूंद ज़िंदगी की’ रखा जाए। ये बात अलग है कि इससे बच्चों को ज़िंदगी मिले न मिले, सरकार को ज़रुर मिलेगी।

4-भूखे आदमी का दिमाग भी कम चलता है। लिहाज़ा अगर सरकार अगले डेढ़ सौ सालों तक भी ये समझाती रहेगी कि महंगाई इसलिए बढ़ी है क्यों कि कच्चे तेल की कीमत एक सौ बीस डॉलर प्रति बैरल हो गई है तब भी लोग नहीं समझेंगे। वायदा कारोबार के लिए बीजेपी पर हमला करने और अमेरिकी मंदी का हवाला देने से भी बात नहीं बनेगी। ज़रुरत है सरकार ज़िले से लेकर पंचायत स्तर के तमाम पार्टी मुख्यालयों को हिदायत दे कि अपने-अपने इलाकों में नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को ये कारण समझाएं। इसके लिए पार्टी के नाटकबाज़ कार्यकर्ताओं की मदद ली जाए। उन्हें निर्देश दिए जाएं कि राहुल बाबा को कृष्ण, और सोनिया गांधी को मां दुर्गा के रुप में दिखाने वाले पोस्टर बनाने का काम छोड़कर फौरन इन नाटकों की तैयारी की जाए। नाटक ख़त्म होने तक लोग रुके रहें इसलिए आख़िर में चाय मट्ठी का बंदोबस्त किया जाए।

5-और आख़िर महंगाई सबसे ज़्यादा हल्ला करने वाले वामदलों को सरकार कटघरे में खड़ा करें। उससे पूछा जाए तुम लोग दिन-रात चीन की चम्मचागिरी में बिताते हो उसका आखिर क्या फायदा क्या? उससे पूछो बाकी सस्ते सामानों की तरह क्यों नहीं वो सस्ती सब्ज़ियां भी भारत को बेचता। उसे समझाओ कि अलार्म क्लोक बेचना बंद करे, हम हिंदुस्तानी वैसी भी लेट उठते हैं, कुछ भेजना ही है तो सस्ती सब्ज़िया भेजो।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

तीन देवियां, तिरासी कन्फ्यूज़न!

मूलत: आलसी होने के कारण मैं भाग्यवादी हूं। बचपन से मैंने हर उस ज्योतिषी में श्रद्धा दिखाई है जो सलाह देता था कि 'अभी कुछ मत करो', वक़्त ठीक नहीं है। अख़बार में आने वाले हर उस राशिफल को मैंने तहेदिल से कुबूल किया है जो कहता था आज कोई नया 'काम शुरू न करें'!

मगर किसी एक ज्योतिषी और एक अख़बार की भविष्यवाणी को मानने मे दिक़्कत ये है कि अगर वो 'कुछ करने' के लिए कह दे, तो किस मुंह से नकारुं! आख़िर अंतरात्मा की आवाज़ भी कोई चीज़ है! वैसे भी ऐसे मौकों पर वो और लाउड हो जाती है।

बहरहाल, इस बीच मुझे मिलीं तीन देवियां। कामचोरी का उन्होंने मुझे वो स्कोप दिया जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। पहले तो इन्होंने मुझमें इस बात का गौरव जगाया कि तुम्हारे पास खर्च करने के लिए भले ही एक भी राशि न हो लेकिन सुनने के लिए तीन-तीन हैं!

तीन देवियों में पहली बताती है कि अगर आप फलां-फलां महीने में धरती पर कहर बन कर बरपे थे, तो आपकी ये राशि है। और इस के हिसाब से आज आप झंडे गाड़ेंगें, किले फतेह करेंगे, हर जगह लाल कालीन बिछे हैं, दरवाजे खुले हैं। टाइम वेस्ट न करें। मुंह-हाथ धोयें, चाय में डुबो दो बिस्किट खायें और काम पर जायें। वो 'करने की सलाह' दे रही है और मेरा दम घुटने लगा है!


लेकिन, इतनी देर में दूसरी देवी प्रकट होती है। ये बताती है डियर, दिल छोटा मत करो। जन्म का महीना भूल जाओ। मैं नाम के आधार पर भविष्य बताऊंगी और वादा करती हूं पहली वाली को सौ फीसदी कॉन्ट्राडिक्ट करुंगी। वो सब्ज़ बाग दिखाती है तो मैं गाज गिराऊंगी। वो करने के लिए कहती है, तो मैं न करने की हिदायत दूंगी!

सच मानिये दोस्तों, इन दोनों ने आज तक कभी निराश नहीं किया। और कभी किया भी है तो तीसरी देवी हर बार मेरी लिये लाइफ लाइन साबित हुई है। ये जन्मांक की बात करती है और उसी हिसाब से ज्ञान देती है, लेकिन जो उपाय ये बताती हैं, उसके लिए मैं इनका बहुत बड़ा फैन हूं।

मसलन, आज आपका दिन ठीक नहीं है और अगर इसे ठीक करना है तो घर के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में हरे रंग की ईंट रख उस पर नीले रंग का दिया जलायें, लाल रंग के कुत्ते को ग्रिल्ड सैंडविच खिलायें, दही में थोड़ी चाय पत्ती डाल उसका घोल बनायें और तीन-तीन चम्मच सुबह शाम पियें। और अगर इसके बाद भी ज़िंदा बच गये तो रात को हमारा कार्यक्रम फिर से देखें!


नीरज बधवार

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

नीता अंबानी का हैंड शेक!

कल शाम मैच के दौरान ब्रेक में चैनल बदलते वक़्त सीएनएन-आइबीएन पर रुकना हुआ। उस वक़्त चैनल 'Real Heroes Awards' कार्यक्रम दिखा रहा था। ये अवार्ड्स सीएनएन-आइबीएन और मुकेश अंबानी की रिलांयस इंडस्ट्रीज़ की तरफ से ज़मीनी स्तर पर देश के लिए अच्छा काम करने वालों को दिए जा रहे थे। अवार्ड देने वाले लोगों में मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी भी थी। समारोह तो 14 अप्रेल को मुम्बई में हो चुका था, मगर उसकी रिकॉर्डंग आ रही थी।
इसी सिलसिले में एक 'देहाती युवा' स्टेज पर अवार्ड लेने पहुंचा। अवार्ड लेने के बाद जब उसने (बड़े मंच की शिष्टता मानकर या घबराहट में) अभिवादन के लिए नीता अंबानी की तरफ हाथ बढ़ाया तो उन्होंने ऐसा न कर हाथ जोड़ दिए। इसके बाद लड़का 'हिंदी' में दो शब्द कह कर चला गया। 'मैच शुरु हो गया होगा' ये सोच कर मैंने फिर से सैट मैक्स लगा लिया।
बैंगलोर रॉयलस और मुम्बई के बीच मैच ख़त्म हुआ, मार्क बॉउचर मैन ऑफ द मैच चुने गए। संयोग से नीता अंबानी (मुम्बई टीम मुकेश अंबानी न ख़रीदी है इस हैसियत से) यहां भी मौजूद थीं। मैन ऑफ द मैच पुरस्कार उन्हें ही देना था। इससे पहले की बॉउचर पुरस्कार लेने के लिए आगे आते नीता अंबानी ने खुद हाथ आगे बढ़ाया, चेहरे पर आत्मीय मुस्कान लाईं और बड़ी शिद्दत से हाथ मिलाया।
सोचने लगा देहाती युवा से हाथ जोड़ कर अभिनंदन और बॉउचर से हैंड शेक। ऐसा उन्होंने अपने कद के चलते किया या उस देहाती की औकात के चलते............... या फिर वो दोनों जो डिज़र्व करते थे उन्हें वही मिला!

शनिवार, 19 अप्रैल 2008

सच्चे प्यार की तलाश! (हास्य-व्यंग्य)

कहते हैं सच्चा प्यार बड़े नसीब से मिलता है। और इस मामले में मर्द खुद को ज़्यादा ही बदनसीब 'मानते हैं'। तभी तो उनकी ये तलाश 'सारी उम्र' जारी रहती है। और इस तलाश में वो डरते भी रहते हैं कि कहीं सच्चा प्यार मिल न जाये। वजह, जो मज़ा तलाश में है वो सच्चा प्यार पाने में नहीं!

सच्चे प्यार की ऐसी ही तलाश में मेरे एक मित्र भी हैं। पिछले छे महीनों में तीन लड़कियों से वो 'सच्चा प्यार' बता मुझे मिलवा चुके हैं। सच्चे का तो पता नहीं उनका हर प्यार कच्चा ज़रूर साबित हुआ। वजह पूछी तो कहने लगे 'असैसमेंट' में चूक हो जाती है। मतलब-मैंने पूछा।

मतलब ये डियर तुम तो जानते हो बेसिकली मैं इंटरोवर्ट इंसान हूं। जब मैं अपनी पहली गर्ल फ्रैंड से मिला तो मुझे ये बात पंसद आयी कि मेरी तरह वो भी कम बोलती है, सूफी संगीत की शौकीन है और तन्हाईपसंद है। फिर क्या था एक-आध मुलाकात में ही लग गया मुझे ऐसी ही लड़की की तलाश थी। लेकिन....लेकिन क्या ? लेकिन, कुछ ही दिनों में मुझे वो बोर लगने लगी। जब भी डेट पर जाते थे ऐसा लगता था कि कहीं अफसोस करने आये हैं। न बताने के लिए मेरे पास कोई किस्सा और न सुनाने के लिए उसके पास नई बात। हमें रियलाइज़ हुआ कि हम एक जैसे तो ज़रूर बने हैं लेकिन एक दूसरे के लिए नहीं बने! लिहाज़ा हम अलग हो गए।

इस बीच मुझे सुहानी मिली। नाम तो उसका सुहानी था मगर वो किसी सुनामी से कम नहीं थी (घटिया कम्पैरीज़न)! क्या स्पार्क था उसमें। दोस्त के ज़रिये इंट्रोडक्शन हुआ। पहली ही मुलाकात में वो दिलो-दिमाग पर छा गयी। उसकी बोल्ड ड्रैसिंग, ज़बरदस्त कोनफिडेंस, फरार्टेदार अंग्रेज़ी। मुझे मेरा सच्चा प्यार मिल गया था। मगर.......क्या मगर ? मगर कुछ दिनों में मुझे लगने लगा वो काफी लाउड है। मुझ जैसे इंटर्वोर्ट आदमी के लिए उसके साथ अडजस्ट करना आसान नहीं था। उसकी डोमीनेटिंग नेचर परेशान करने लगी थी। इससे पहले की मैं अपना वजूद खोता मैं उससे अलग हो गया।

और मेरे लेटस्ट सच्चे प्यार की तो मत ही पूछो। पहली दोनों गर्लफ्रेंड्स का रीमिक्स थी वो । कब चुप रहना है, कब बोलना है सब पता था उसे। अदा और अक्ल का शानदार कोम्बो थी वो। और फिर........एक रोज़ पता चला प्यार के मामले में वो डैमोक्रेसी में बिलिव करती थी। ऐसी डैमोक्रेसी जहां हर तीन महीने में नया उम्मीदवार चुना जाता था! उसने मुझे छोड़ दिया।

चेहरे पर मायूसी ला मित्र बोला-सच्चे प्यार की तलाश करते-करते मैं थक चुका हूं। सोचता हूं.....क्या सोचते हो ? सोचता हूं अब कुछ वक़्त अपनी बीवी में ही उस सच्चे प्यार को तलाश्ने की कोशिश करूं!

मित्र की हताशा समझ सकता हूं। वैसे भी किसी ने ठीक ही कहा है एक औरत को ज़िंदगी में जब सच्चा प्यार नहीं मिलता तो वो अपनी मां के पास चली जाती है और इसी सूरत में आदमी अपनी बीवी के पास!

नीरज बधवार

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

क्रांतिकारी की चप्पल! (हास्य-व्यंग्य)

वो अलस्सुबह दस बजे उठता है। मुंह-हाथ धोता है, जिसे वो नहाना ही समझता है। केतली-भर चाय बना बिस्तर पर बैठता है। पहले अख़बार पढ़ता है। फिर दर्शन का रुख करता है। गुरजेफ से लेकर जिब्रान तक सब पढ़ता है। वो पढ़ता जाता है और उसका तापमान बढ़ता जाता है।

दोपहर होते-होते भुजायें फ़ड़कनें लगी है। भेजे के कुकर में विचारों की बिरयानी हद से ज़्यादा उबल चुकी है, रग-रग में सीटियां बज उठी हैं। उसे उल्टी करनी है। लेकिन कहां जाये? ढक्कन कैसे खोले ? दोस्त तो सभी नौकरियों (जो उसकी नज़र में छोटी) पर गये हैं।

हताशा में वो टीवी चलाता है। ख़बरिया चैनल पर रुकता है। जहां 'आज़ादी के हासिल' पर चर्चा हो रही है। इसे ख़ुराक मिल गई। लेकिन, दो मिनट में तीनों विचारक खारिज। ये सब किताबी बातें हैं, इनमें से कोई ज़मीनी हक़ीकत से वाक़िफ नहीं। वो गुस्से में 7388 पर एसएमएस करता है। सोचता है एंकर अभी मैसेज पढ़ कहेगा वाह! क्या कसीली बात लिखी है। वो इंतज़ार कर रहा है, बिना जाने की ये रिपीट टेलिकास्ट है!

इस बीच बहस बिजली समस्या की तरफ मुड़ती है। वो सीधा होता है, वॉल्यूम बढ़ाता है....सत्यानाश......तभी बिजली चली जाती है। लानत है....हासिल की बात करते हैं, 'ये' हासिल है ... बिजली की समस्या पर चर्चा सुनने लगो तो बिजली चली जाती है!

ईश्वर, तू ही बता आख़िर क्या कसूर था मेरा ? तेंदूखेड़ा की बजाय मैं टोरांटो में क्यूं नहीं जन्मा ? बर्गर की जगह भिण्डी क्यूं लिखी मेरी किस्मत में ? लेकिन, तभी उसे रंग दे बसंती का डायलॉग याद आता है, सिस्टम से समस्या है तो शिकायत मत करो, उसे बदलने की कोशिश करो। वो खड़ा होता है...सोचता है....बहुत हुआ....मैं जा रहा हूं अज्ञानता का अंधकार मिटाने, ज्ञान के दीप जलाने, होम का मोह छोड़, दुनिया के लिए खुद को होम करने।

लेकिन, ये क्या....कहां हो तुम....यहीं तो थी....कहां चली गई......यहां-वहां हर जगह ढूंढ़ा... नहीं मिल रही...ख़्याल आया..कहीं छोटा भाई तो नहीं पहन गया...हां, वही पहन गया होगा...उसे तो मैं...

देखते ही देखते माहौल और मूड बदलने लगा है। देश को बदल देने की 'महत्वाकांक्षा' , भाई को देख लेने की 'आकांक्षा' में तब्दील हो गई है। क्रांतिकारी का भाई, जो ज़रा नीचे दही लेने गया है, नहीं जानता कि उसने देश की उम्मीदों की दही कर दी। नाउम्मीद हुआ क्रांतिकारी फिर से बिस्तर पर जा लेटा है। तापमान गिरने लगा है, जोश भाप बन उड़ चुका है। और इस मुल्क की तक़दीर 'एक बार फिर' इसलिए नहीं बदल पाई क्योंकि क्रांतिकारी को उसकी चप्पल नहीं मिली!

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

कौन कहता है हम रचनात्मक नहीं हैं!

कल ही मित्र बता रहा था कि वो सिटी बस में कभी पांच का टिकिट नहीं लेता। पहले वो दो का टिकिट लेता है फिर जब टिकिट ख़त्म हो जाता है तो दोबारा दो का टिकिट ले लेता है। इस तरह से वो पांच रूपये का सफर चार में तय करता है और हर दिन दो रूपये बचाता है!


मित्र की बात सुन सोचने लगा कि ख्वामखाह दुनिया कहती है हम रचनात्मक नहीं है ? सोचने और करने को लेकर हमारे पास कुछ नया नहीं है। मुझे लगता है इससे बेहूदा इल्ज़ाम लगाया ही नहीं जा सकता। इस देश में कहीं भी नज़र डालें आपको रचनात्मकता के सुबूत मिल जायेंगे।

मसलन, एक अमेरिकी और यूरोपीय दिमाग कभी नहीं जान सकता कि अगर आपके घर के आगे की नाली ब्लॉक हो गई हैं तो क्या किया जाये ? लेकिन भारतीय दिमाग जानता है। वो ये कि सड़क के बीचों-बीच एक नाली खोद लें, ताकि आपकी तरफ की नाली का पानी, आपकी मेहनत से बनाई नाली से होता हुआ, सड़क के दूसरी तरफ की नाली में जा मिले! मुझे नहीं लगता ड्रेनज समस्या से निजात पाने का ऐसा 'आत्मनिर्भर तरीका' दुनिया का कोई और नागरिक इजाद कर सकता था!

घरों में लगे बिजली मीटर रोकने में भी भारतीयों ने अपनी रचनात्मक प्रतिभा का पूरा परिचय दिया है। भले ही जीवन में सफल होने का एक भी तरीका हमें न पता हों, लेकिन, बिजली मीटर रोकने के 373 तरीकें हम बता सकते हैं। सुनने में तो यहां तक आया कि अमेरिका परमाणु करार पर तमाम भारतीय एतराज़ दूर करने के लिए तैयार है, बशर्ते, भारत उस महान आत्मा को उसे सौंप दें, जिसने दुनिया को बताया कि एक्स-रे शीट से भी बिजली मीटर रोका जा सकता है!

साथ ही 'दो बटा तीन चाय' का फार्मूला भी पूरी तरह भारतीय है। चाय के ठेले पर पहुंचे तीन रचनात्मक दिमाग, जो अगले आधे घंटे में उन तीस लोगों को निपटाने वाले हैं, जिन्हें वो पहले भी तीन हज़ार बार, तैंतीस हज़ार कोणों से निपटा चुके हैं, सोचते हैं कि भाई, बुराई करने के लिए ये ज़रूरी नहीं कि तीन लोग, तीन कप ही चाय पियें। अगर दो कप चाय तीन कपों में डलवा ली जाये तो भी निंदा कर्म पर कोई आंच नहीं आने वाली।

इसके अलावा एक वाक्या जिसके बारे में जब भी सोचता हूं तो आंखें 'भारतीय होने के' गर्व से छलछला उठती हैं। कुछ बरस पूर्व एक रूसी कम्पनी ने भारतीय कम्पनी से बड़ी तादाद में जूते ख़रीदें। कुछ वक्त बाद कम्पनी ने पाया कि जो जूते उसे बेचे गए हैं, उसके सौल में तरबूज़ का छिलका लगा हुआ है! अदालत ने इस मामले में भारतीय कम्पनी को जुर्माना भी ठोका। लेकिन मैं पूछता हूं क्या किसी ने एक पल के लिए भी उस भारतीय प्रतिभा के बारे में सोचा जिसने दुनिया को बताया कि एक अदने 'तरबूज के छिलके' की ये नियति भी हो सकती है!

(नोट-आपने भी अपने आसपास ऐसी किसी रचनात्मकता को देखा हो तो शेयर करें। आख़िर ये महान भारतीय प्रतिभाओं को जानने-समझने का मामला है।)

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

रूकें, पढ़ें और बताएं, क्या आपने इन्हें कहीं देखा है!

हिंदी सीरियल्स देखते वक्त मेरे ज़हन में अक्सर ये बात आती है कि ये परिवार जो यहां दिखाया गया है ये देश के किस राज्य के, किस ज़िले के, किस शहर के, किस मोहल्ले में रहता है। जहां भी रहता है, उससे मिल कर मैं कुछ सवाल करना चाहता हूं। इसी चक्कर में मैंने काफी धक्के भी खाये। मगर परिवार मेरे हाथ नहीं लगा। खैर, ये सवाल आप से शेयर करना चाहता हूं। अगर परिवार या इस का कोई सदस्य आपसे मिले तो उससे ज़रुर पूछियेगा।

पेश हैं कुछ मासूम सवाल-

सच-सच बताना तुम लोग जन्म लेते हो या आर्डर दे कर बनवाये गये हो। लगता तो यही है परिवार के सभी सदस्य आर्डर दे कर बनवाये गये हैं और वो भी किसी कवि की निगरानी में। हमारे यहां तो ढूंढने पर पूरे मुहल्ले में एक ढंग की लड़की नहीं दिखती और तुम्हारे घर में एक से एक..............चलो छोड़ो। और बावजूद उसके घर में कोई ब्लैंक कोल नहीं आती। जहां एक खूबसूरत लड़की रहती है वहां दिन में कम से कम 15-20 ब्लैंक काल्स तो आती ही हैं।


तुम में से कोई मुझे एलजी या जनता फलैट्स में रहता क्यों नहीं दिखता? यहां तो साला दो कमरों का मकान किराये पर लेने में जान निकल जाती है। लेकिन तुम्हारे घर देख विश्वास करना मुश्किल है कि तुम घर में रहते हो या धर्मशाला में ! इतनी लम्बी गैलरी। लोबी के बीचो-बीच सीढ़ियां। जहां देखों कमरे ही कमरें। इसके बावजूद एक भी किरायेदार नहीं। एक-आध कमरा तो कम-से-कम किराये पर चढ़ाओ।

घर की बीचों-बीच जो डाइनिंग टेबल पड़ी रहती है उसे लेकर भी तुम मुझे जवाब दो। जानते हो तुम्हारी इस डाइनिंग टेबल ने हम भारतीय कितनी हीनता का शिकार हुए हैं। जब भी तुम लोगों को वहां खाना खाते देखते हैं तो दिल करता है कि हम भी परिवार के साथ ऐसे ही खाना खायें। मगर क्या करें.....हमारे घर में डबल बैड रखने की जगह नहीं.....डाइनिंग टेबल कहां रखे ? दूसरा डाइनिंग टेबल ले भी आयें तो हमें इतनी तमीज़ नहीं है कि टेबल पर कैसे खाया जाता है ? हमें तो रजाई में बैठ के खाने की आदत है।


बिना किसी काम-धाम के तुम लोग घर में इतने लिपे-पूते क्यों रहते हो ? क्या सोचते हो कि कहीं कोई बारात का न्यौता न आ जाये। घर में औरतें कद्दू भी काटती हैं तो शिफोन की साड़ी में। यार कुछ तो कपड़े की ग्रेस का ख्याल रखो ? कहीं जाना नहीं तो पजामा पहन के बैठो।


प्रिय, क्या तुम्हारे यहां बिजली का बिल नहीं आता। आता है तो इतने फानूश क्यो लगा रखे हैं ? लगा भी रखे हैं तो हर वक्त जला कर क्यों रखते हो ? किसके लिए इतना दिखावा ? मैंने तुम्हें बिजली का बिल भरने जाते भी कभी नहीं देखा। मुझे लगता है तुमने गली के खम्भे में कुंडी मार रखी है। इसीलिए इतने बेफिक हो। वरना तुम कभी तो घर वालों पर चिल्लाते दिखते.....'देख रहो हो इस बार कितना बिल आया है। सौ बार कहता हूं......कमरे से निकलो तो पंखा बंद कर दो।'

वैसे तो तुम हर मुद्दे पर झगड़ते दिखते हो। लेकिन मैंने तुम लोगों को कभी रिमोट के लिए झगड़ते नहीं देखा। जबकि हर भारतीय घर में 69 फीसदी झगड़े तो रिमोट और पसंद का चैनल देखने के लिए ही होते हैं। तुम्हारे पति को भी तुम्हें कभी इस बात पर डांटते नहीं देखा कि क्या ये हमेशा रोने-धोने वाले नाटक देखती हो। ये सब लो-आईक्यू वाले लोग देखते हैं। चलो डिस्कवरी चैनल लगा दो।

अपने बुज़ुर्गों को सुन्दरता और अमरता का तुम कौन-सा घोल पिलाते हो। किस कम्पनी का च्वयनप्रास खाते हैं वो। प्लीज़ मुझे बताओ। न मैने उन्हें कभी खांसते देखा, न हांफते। न किसी की ज़बान लड़खड़ाती है न किसी को ऊंचा सुनता है। सब एक दम हट्टे-कट्टे। हफ्ते-दर-हफ्ते और निखरते जाते हैं। सब की डॉयलग डिलीवरी भी कमाल की है। किसी के एक्सैंट से नहीं पता चलता कि ये पंजाबी है ? मराठी है ? या बंगाली ? सब शुद्ध ख़ालिस नुक्तों की ज़बान बोलते हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती आज ज़िदा होते तो खूब नाराज़ होते। विधवा विवाह को लेकर जो लिबर्टी उन्होंने तुम्हें दिलवाई, उसका तुम ऐसा हश्र करोगी ये उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा। पति की कार अगर खाई में गिरी है, पहले कम-से-कम कन्फर्म तो कर लो कि वो मरा के नहीं। इधर वो मरा नहीं, उधर लगी तुम अखबारों में वर ढूंढनें। तुम शादी कर लेती हो। सम्पूर्ण श्रद्धा से नये पति की हो जाती हो। बच्चा भी होने को है। और ठीक उसी समय तुम्हारा पहला पति, जो लगता है ये सब होने के इंतज़ार में बैठा था, उसी वक़्त आ धमकता है। हैरानी की बात ये है कि तुम हर सीरियल में ये ग़लती करती हो।

बड़े घर, बड़ी गाडी और बड़े मुंह के अलावा तुम लोगों के घाटे भी बड़े-बड़े होते हैं। मिस्टर कपूर और मिस्टर थापा को कभी 5 करोड़ से कम का घाटा नहीं लगता। केबल वाला ढाई सौ से तीन सौ रूपये कर देता है हम लोग केबल कटवा लेते हैं। रिक्शे वाले से दो-दो रूपये के मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। मगर तुम्हारी....तुम्हारी तो बात ही निराली है। हाय! क्या हमे भी कभी पांच करोड़ का घाटा होगा या हम यूं ही आलू-प्याज के मौल-भाव में ही मर जायेंगे !