गाली देने के लिए राजनीति और नेता हमारे प्रिय पात्र हैं। ज़रा-सी फुरसत हो, तशरीफ रखने की जगह, चार-पांच निकम्मे दोस्त, अदरक वाली चाय और उसमें डुबो खाने के लिए दो-चार बिस्किट मिल जाएं तो किसी भी नेता को, किसी भी कोण से, कितनी भी देर तक, कहीं भी निपटा सकते हैं। सौभाग्य देखिए, गाली देने के लिए न तो हममें स्पिरिट की कमी है और न ही इस महान देश में गाली खाने वाले नेताओं की। भ्रष्टाचार अगर उनका व्यवहार बन चुका है तो गालियां उनका पसंदीदा आहार। इसे खाए बिना उन्हें लगता ही नहीं कि आज कुछ खाया है। ये गाली उनकी थाली का स्थायी हिस्सा बन चुकी है और हमने भी कुशल गृहिणी की तरह आज तक उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।
मगर दिक्कत ये है कि नेता अगर गालियां खाकर लोकतंत्र चला रहे हैं तो हम भी उन्हें सिर्फ गालियां दे कर लोकतंत्र में अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रहे हैं। मुम्बई के लोगों ने तो इस मामले में कमाल ही कर दिया है। आतंकी हमलों के बाद जिस तरह मोमबत्तियां जलाने का आक्रामक अभियान चलाया गया उसमें मोमबत्तियां भी खुद को मशाल समझने की ग़लतफहमी पाल बैठी थी। दुनिया को भी लगने लगा मुम्बईवासियों ने सारे घर के बदलने की ठान ली है। भ्रष्ट और मक्कार नेताओं के दिन अब लद गए। ये शहर अब खुद को नए नेतृत्व के लिए तैयार कर रहा है।
मगर इसे उम्मीद का विपरीत अंत कहें या एंटी क्लाइमैक्स, चुनाव के दिन पैंतालीस फीसदी लोग भी वोट देने नहीं निकले। आग उगलते नेताओं को बुझ चुकी नेताओं के हवाले कर नेताओं ने अपने फर्ज़ से पिंड छुड़ा लिया। फ्रेंच मैनिक्योर्ड नाखूनों को नीली स्याही से ख़राब करने के बजाए उन्होंने मुम्बई के नज़दीक किसी हिल स्टेशन पर एक्सटैंडिड वीकएंड बिताना बेहतर समझा। वैसे भी जिन लोगों ने ज़िंदगी बर्बाद कर दी थी, उनकी ख़ातिर वो अपना वीक-ऑफ क्यों बर्बाद करते।
मुम्बईवासियों ने जो करना था कर दिया, अब बारी दिल्लीवासियों की है। भाई लोगों, मुम्बईवाले हमेशा से खुद को ज़्यादा एडवांस बता तुम्हें चिढ़ाते रहे हैं। जेसिका लाल से लेकर अमन काचरू हत्याकांड तक मोमबत्तियां तुमने भी कम नहीं जलाई हैं। लोकतंत्र की रक्षा के लिए तुम भी फर्ज़ निभा चुके हो। गुरूवार को चुनाव है। शनि, रवि की छुट्टी रहती है। शुक्र की छुट्टी के
लिए आज ही अप्लाई कर दो। मुम्बईवाले अगर खंडाला और महाबलेश्वर जा सकते हैं तो क्या नैनीताल और मसूरी के लिए बस चलनी बंद हो गई हैं। फौरन रिज़र्वेशन करवाओ। मक्कारी के मामले में अतिआत्मविश्वास अच्छा नहीं होता। शहर में पप्पू और भी हैं!
मंगलवार, 5 मई 2009
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4 टिप्पणियां:
sahar kya..har gali..muhalla 'pappu' se khatcha khatch bhada pada hai :)
नेताओं का पसंदीदा विचार
जिसके आगे हो गए हैं वे
लाचार लाचार लाचार
वो है वोटर का जूता व्यवहार।
मक्कारी के मामले में अतिआत्मविश्वास अच्छा नहीं होता। :) बहुत सटीक...मजा आ गया!!
वाह! क्या सही लिखा है !
घुघूती बासूती
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