गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

जूत्यार्पण नहीं, माल्यार्पण के हैं हक़दार!

सड़क किनारे जिस रेहड़ी वाले से मैं सब्ज़ी खरीद रहा हूं, वहीं अचानक एक पुलिसवाला आकर रुकता है। वो इशारे से सब्ज़ीवाले को साइड में बुलाता है। वापिस आने पर जब मैं सब्जीवाले से बुलाने की वजह पूछता हूं, तो वो पहले कुछ हिचकिचाता है। फिर कहता है कि यहां खड़े होने के ये (पुलिसवाला) रोज़ तीस रूपये लेता है। करूं भी क्या मेरे पास और कोई चारा भी नहीं है। दुकान यहां किराए पर ले नहीं सकता और रेहड़ी लगानी हैं, तो इन्हें पैसे तो देने ही होंगे।


घर आते समय जब मैं पूरे वाकये को याद कर रहा था तो मन पुलिसवाले के लिए श्रद्धा से भर गया। यही लगा कि आज तक किसी ने पुलिसवालों को ठीक से समझा ही नहीं। हो सकता है कि ऊपर से देखने पर लगे कि पुलिस वाले भ्रष्ट हैं, गरीब रेहड़ी वालों से पैसे ऐंठते हैं, मगर ये कोई नहीं सोचता कि अगर वो वाकई ईमानदारी की कसम खा लें तो इन गुमटी-ठेलेवालों का होगा क्या? पुलिस का ये ‘मिनी भ्रष्टाचार’ तो लाखों लोगों के लिए रोज़गार की वैकल्पिक व्यवस्था है। जो सरकार इतने सालों में इन लोगों के लिए काम-धंधे का बंदोबस्त नहीं कर पाई उनसे दस-बीस रूपये लेकर यही पुलिसवाले ही तो इन्हें संभाल रहे हैं। इतना ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में पुलिसवाले अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं, मगर हममें से किसी ने आज तक उन्हें सराहा ही नहीं।

मसलन, पुलिसवालों पर अक्सर इल्ज़ाम लगता है कि वो अपराधियों को पकड़ते नहीं है। मगर ऐसा कहने वाले सोचते नहीं कि जितने अपराधी पकड़े जाएंगे उतनों के खिलाफ मामले दर्ज करने होंगे। जितने मामले दर्ज होंगे उतना ज़्यादा अदालतों पर काम का बोझ बढ़ेगा। जबकि हमारी अदालतें तो पहले ही काम के बोझ तले दबी पड़ी है। ऐसे में पुलिसवाले क्या मूर्ख हैं जो और ज़्यादा से ज़्यादा अपराधियों को पकड़ अदालतों का बोझ बढ़ाएं। लिहाजा़, पुलिसवाले या तो अपराधियों को पकड़ते ही नहीं और पकड़ भी लें तो अदालत के बाहर ही मामला ‘सैटल’ कर उन्हें छोड़ दिया जाता है।

अक्सर कहा जाता है कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं। हमारे पुलिसवाले भी ऐसा सोचते हैं। यही वजह है कि अपनी ज़ुबान और आचरण से वो हमेशा कोशिश करते हैं कि पुलिस और अपराधी में भेद ही ख़त्म कर दें। इस हद तक कि सुनसान रास्ते पर खूंखार बदमाश और पुलिसवाले को एक साथ देख लेने पर कोई भी लड़की बदमाश से ये गुहार लगाए कि प्लीज़, मुझे बचा लो मेरी इज्ज़त को ख़तरा है। यही वजह है कि पुलिसवाले अपने शब्दकोष में ऐसे शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं जो किसी शब्दकोष में नहीं मिलते। सिर्फ इसलिए कि पुलिसवाले से पाला पड़ने के बाद अगर किसी का गुंडे-मवाली से सम्पर्क हो तो उसकी भाषायी संस्कारों को लेकर किसी को कोई शिकायत न हो। उल्टे लोग उसकी बात सुनकर यही पूछें कि क्या आप पुलिस में है।

दोस्तों, हम सभी जानते हैं कि निर्भरता आदमी को कमज़ोर बनाती है। ये बात पुलिसवाले भी अच्छे से समझते हैं। यही वजह है कि वो चाहते हैं कि देश का हर आदमी सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बने। तभी तो सूचना मिलने के बावजूद हादसे की जगह न पहुंच, रात के समय पेट्रोलिंग न कर, बहुत से इलाकों में खुद गुंडों को शह दे वो यही संदेश देना चाहते हैं कि सवारी अपनी जान की खुद ज़िम्मेदार हैं। सालों की मेहनत के बाद आज पुलिस महकमे ने अगर अपनी गैरज़िम्मेदार छवि बनाई है तो सिर्फ इसलिए कि देश की जनता सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो पाए। हम भले ही ये मानते हों कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है मगर पुलिस के मुताबिक वो हमारा निजी विषय है।


अब आप ही बताइये दोस्तों ऐसी पुलिस जो गरीब तबके को रोज़गार मुहैया कराए, अदालतों का बोझ कम करे, सुरक्षा के मामले में जनता को आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दे और अपराधियों के प्रति सामाजिक घृणा कम करने के लिए खुद अपराधियों-सा सलूक करे, क्यों…आख़िर क्यों ऐसी पुलिस को हम वो सम्मान नहीं देते जिसकी की वो सालों से हक़दार है।

5 टिप्‍पणियां:

Shiv ने कहा…

हमेशा की तरह बेहतरीन.
पुलिस का सम्मान होना ही चाहिए. सबसे पहले होना चाहिए.

कुश ने कहा…

ये सही पकड़ा आपने.. पुलिस वाले जिंदाबाद !

अर्कजेश ने कहा…

देशभक्ति जनसेवा । ये पोस्‍ट पढकर पुलिसिये जज्‍बे में वृद्धि हो सकती है ।

सागर ने कहा…

जिंदाबाद - जिंदाबाद... पुलिस महकमा जिंदाबाद !!!!

रवि रतलामी ने कहा…

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