मंगलवार, 8 जून 2010

लेखक का ख़त!

सम्पादक महोदय,
नमस्कार!

लेखक भले ही समाज में फैले भ्रष्टाचार, गिरते सामाजिक मूल्यों, स्वार्थपूर्ण राजनीति पर कितना ही क्यों न लिखे लेकिन उसकी असल चिंता यही होती है कि उसका भेजा लेख टाइम से छप जाए। मानवीय मूल्यों की गिरावट पर उसे दुख तो होता है लेकिन साथ ही इस बात की खुशी भी होती है, इस गिरावट पर जैसा वो लिख पाया वैसा किसी और ने नहीं लिखा। ये सही है कि ऐसा सोचना भी अपने आप में गिरावट है, मगर ये अलग बहस का विषय है।

ठीक इसी तरह पिछले कुछ लेखों में मैंने भले ही नेताओं से लेकर, मीडिया और खेल पर जो लिखा हो मगर इस दौरान मेरी असली चिंता यही रही कि आपने व्यंग्य कॉलम काफी छोटा कर दिया है। माना कि बड़ा कॉलम होने पर लेखक विषय से भटक जाते हैं मगर आपने ये कैसे मान लिया कि कॉलम छोटा होने पर लेखक भटकना बदं कर देंगें। मुझ जैसे को तो आप चुटकुला छाप कर भी भटकने से नहीं रोक सकते। कविता, कहानी, उपन्यास से भटकते हुए तो हम व्यंग्यकार बने हैं, अब व्यंग्य में भी नहीं भटकेंगें तो कहां जाएंगें, आप ही बताईये!

पहले आप इस कॉलम को पेज के बीचों-बीच छापते थे, फिर इसे नीचे ले गए और अब साहित्य में व्यंग्यकार की तरह, आपने इसे पूरी तरह हाशिये पर डाल दिया है। उस पर शब्द सीमा भी घटा दी है। जितने शब्द पहले मैं विषय पर आने में लेता था उतने में तो लेख ही ख़त्म हो जाता है। इससे बड़ी तो आप पाठकों की चिट्ठियां छापते हैं। सोच रहा हूं... लेख छोड़ चिट्ठियां लिखनी शुरू कर दूं। मेरा अनुरोध है कि या तो कॉलम फिर से बड़ा कर दें या फिर रचना मेल के बजाए एसएमएस से लेना शुरू कर दें!

छपने की आशा में...

शिकायती लेखक!

6 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

लेखक मोहदय,

आपका खत प्रकाशित कर दिया गया है...भले ही आपने शिकायत की है । लेकिन आप शायद नही जानते कि हमारे पास रोज हजारों की संख्या मे खत और लेख आते हैं....यदि हम सभी के लेख और खत छापने लगें तो पूरा एक ग्रंथ रोज छापना पड़ेगा। आशा है आप हमारी मजबूरी समझ गए होगें ।

संपादक
ब्लॉगजगत

:))

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

नीरज भाई। सही चिंतन। परंतु चिट्ठियां लिखने का पारिश्रमिक नहीं मिलता है और न मिलने की संभावना है जबकि श्रम पूरा ही लगता है। चिट्ठीलेखकों का तो सदा से शोषण ही किया जाता है और किया ही जाता रहेगा।

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

कुश ने कहा…

लगता है ऊपर कोई चायनीज संपादक भड़क गया है

रंजना ने कहा…

परमजीत जी ने सटीक उत्तर दे दिया है आपके पत्र का...

वीरेंद्र रावल ने कहा…

नीरज भाई ,
मुझे lagta हैं बेचारे संपादक की गलती नहीं हैं , लेखक महोदय पहले कम पैसों में लेख लिखते थे और अब महंगाई को देखकर "रेट" को लेकर " negotiation " में दिक्कत होगी . सच में बेचारे संपादको को लेखको की monoply ने मजबूर किया होगा .
आप पैसे को लेकर एक बार मीटिंग कीजिये और थोड़ी सस्ती दरो पर काम करने का भरोसा दिलाये फिर देखिये , आतंकवादी घटनाओ में कैसे ब्रेकिंग न्यूज़ में आपके कोलम के साथ आपका मुस्कराता चमकता चेहरे भी दिखेगा .