गुरुवार, 9 जुलाई 2009

इक तेरी इनायत और इक मेरी आफत!

बेशर्मी ने अपना दायरा बढ़ाया है। इंसानों से होते हुए वो सब्जियों तक जा पहुंची है। मैं आलू को समझाने की कोशिश कर रहा हूं, मगर वो नहीं समझ रहा। लाखों करोड़ की सब्सिडी का हवाला देता हूं, फ्रिंज बेनिफिट टैक्स के खात्मे की याद दिलाता हूं, नौ फीसदी विकास दर का भी ज़िक्र करता हूं, मगर सब नाकाम। औसत चाकू से कट जाने वाला आज किसी तर्क से नहीं कट रहा। एक सीटी में गल जाने वाला आज किसी दलील पर नहीं पिघल रहा। किसी क़ीमत पर अपनी क़ीमत कम करने को तैयार नहीं है।

निराश हो मैं शिमला मिर्च का रुख करता हूं। इस उम्मीद में कि शायद उसने बजट भाषण सुना हो, आर्थिक सर्वेक्षण पढ़ा हो और शायद वो मेरी अवस्था देख, मेरी ख़राब अर्थव्यवस्था का अंदाज़ लगा पाए, मगर सब व्यर्थ। मेरी बकवास से बचने के लिए शिमला मिर्च भी कान में हरी मिर्च डाले बैठी रही। दालों से भी फरियाद की मगर वहां भी दाल नहीं गली। हारकर प्याज के पास पहुंचा। उसे किसानों के ऋण पर घटे ब्याज के बारे में बताया, मगर प्याज भी ब्याज की बात से प्रभावित नहीं हुआ।

आंखों से आंसू छलक आए हैं, पर ये प्याज के नहीं, भूख के हैं। समझ नहीं पा रहा, क्या करूं? ब्रांडेड ज्वैलरी को फ्राई कर खाऊं या एलसीडी टीवी के टुकड़े कर उसे कुकर में सीटी लगवा लूं और ऊपर से बायोडीज़ल पी लूं? बर्दाश्त की सीमा ख़त्म हो रही है। तभी याद आता है कि जीवन रक्षक दवाओं पर सीमा शुल्क में कटौती हुई है। सोचता हूं...जान बचाने का एक ही तरीका है कि कुछ जीवन रक्षक दवाएं खा लूं। विचार आते ही सरकार की दूरदर्शिता को सलाम करने का दिल चाहता है। उसे आभास था कि उसके ‘जीवन भक्षक’ इंतज़ामों के बाद ये ‘जीवन रक्षक’ दवाएं ही लोगों के काम आएंगी। तभी इनकी क़ीमतें कम कर दीं।

फिर भी मैं इस कोशिश में हूं कि कहीं किसी कोने में दबी-छिपी खुशी अगर दबी-सहमी बैठी है तो उसे ढूंढ लाऊं। मेरी नज़र आयकर छूट की बढ़ी सीमा पर पड़ती है जो डेढ़ लाख से एक-साठ हो गई है। मतलब, सालाना एक हज़ार तैंतीस और मासिक पच्चासी रूपये की ‘भारी बचत’। आंखें खुशी से छलछला उठी हैं। तय नहीं कर पा रहा हूं कि बढ़े पैसों को कहां निवेश करूं? इन पैसों से तीन पाव दूध फालतू लगवाऊं, ढाई किलो देसी घी खरीदूं, दो अख़बार और लगवाऊं या सारा पैसा स्विस बैंक में जमा करवा दूं। भारी कन्फ्यूजन है। सोचता हूं ऑफिस से हफ्ता-दस दिन की छुट्टी ले, सीए से सलाह करूं। आख़िर मामला हज़ार रूपये के निवेश का है। जल्दबाज़ी में कहीं पैसा ‘फंसा’ न बैठूं।

मैं निवेश की समस्या से जूझ ही रहा था कि बेरोज़गार मित्र घर में प्रवेश करता है। उसके हाथ में हिंदी-अंग्रेज़ी के दसियों अख़बार थे और चेहरे पर चिंता की बीसियों लकीरें। पूछने लगा-कहां है? मैंने कहा-क्या? वो बोला-‘एक करोड़ बीस लाख नौकरियां। सभी अख़बार खंगाल मारे। मुझे तो एक भी नहीं मिली’। मैंने कहा-‘मित्र, अभी तो वित्त मंत्री ने घोषणा ही की है, इन्हें क्रिएट किया जाएगा। मैंने समझाया कि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ के तहत साठ करोड़ लोगों के लिए ‘बायोमैट्रिक कार्ड’ जारी किए जाएंगे। ‘यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ को भी पहचान पत्र बनाने हैं। दोनों जगह लोग रखे जाने हैं’। मित्र उतावला हो उठा। इससे पहले मैं कुछ और कहता, उसने पूछा- ‘मगर क्या ये सारी भर्तियां दस तारीख से पहले हो जाएगा?’ मैंने पूछा-वो क्यों? वो इसलिए क्यों कि मुझे हर हाल में दस तारीख से पहले किराया देना है...मैंने कहा-मित्र, उन्हें तुम्हारे भाड़े की नहीं, भाड़ की चिंता और तुम्हें वहां भेजने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया। अब तो दुआ करो कि अगले बजट में 'राष्ट्रीय ग्रामीण किराएदार मिशन' के नाम से कोई योजना आ जाए।

14 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

वाह वाह कमाल के मजाकिया हैं आप भी जब अपको पता चल जाये कि हजार रुपये का क्या करना है तो हमे भी जरूर बता दें मजाक मे ही सही बडिया पोस्ट

Anshu Mali Rastogi ने कहा…

बजट की तरह आम आदमी का व्यंग्य।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

अपनी चिंताओं में मुझे साझी समझें.

राज भाटिय़ा ने कहा…

यह चिंता आज बहुत से पढे लिखे नोजवानो की है, बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने वजट पर इन सब्जियो के बहाने

कुश ने कहा…

ise kahte hai dhaardhar talwaar.. kya sahi kataksh kiya hai neeraj bhai..

Udan Tashtari ने कहा…

करारी चोट.. वैसे जल्दबाज़ी में कहीं पैसा ‘फंसा’ तो नहीं बैठे?

Fighter Jet ने कहा…

ab 'aam aadmi ka budget' aam hi to hoga..agae taraki karni hai to fir kare kadam uthane honge...wo 'aam aadmi ke budget' pesh karne wale buzurgo ke bash ki baat nahi hai..abhi 20-25 saal aur lagta hai india ko aishe hi dhakee khane hai.

Shiv ने कहा…

बहुत शानदार लेख है नीरज जी.
आलू को लेकर वित्तमंत्री जी ने कोई पॉलिसी स्टेटमेंट दिया होता तो आलू आपकी बात ज़रूर सुनता.

रंजना ने कहा…

आपको पता नहीं......सरकार की दूरगामी निति है यह जनसँख्या नियंत्रण की....

मंहगाई इतनी बढा दी जायेगी की देश का कूड़ा कचड़ा (गरीब तबका) ऐसे ही साफ़ हो जायेगा,बिना कुछ किये....

Unknown ने कहा…

ek hi lafz.....

G A Z A B !

मधुकर राजपूत ने कहा…

सही में व्यंग्य लेखन मोक्ष है, हर बार आपको पढ़कर यही आभास होता है। आनंद।

वीरेंद्र रावल ने कहा…

ise vyangya kahe ya yatharth , dono hi pahloo par aapki ye rachna ekdum sateek baithti hai,

sach kahu to aap hamare dukh or hansi ko ekdum apne shabdon me hubahu utar dete ho

likhte rahiye neeraj bhai, hamara pyar aapke sath hai

प्रमोद ताम्बट ने कहा…

जोरदार। सच कहूं तो बहुत दिनों बाद एक बेहतरीन व्यंग्य पढ़ने को मिला है। बधाई।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल

Unknown ने कहा…

बेहद साधारण भाषा, लेकिन निशाने पर एक एक शब्द...