गुरुवार, 30 जुलाई 2009

दर्शन दो घनश्याम!

तस्वीरें, अंग्रेज़ी अख़बार का वो महत्वपूर्ण ‘कंटेंट’ हैं, जिनसे गुज़रते हुए हिंदीभाषी पाठक उसके पन्ने पलटता है। मैं भी यही कर रहा हूं। तस्वीरें देख रहा हूं और साढ़े तीन रूपए की बर्बादी की आत्मग्लानि के भंवर में फंसने से खुद को बचा रहा हूं। बहुत-सी सुंदर बालाएं इस रेस्क्यू ऑपरेशन में मेरी मदद कर रही हैं। एक जगह पैंतीस हज़ार की ‘सस्ती ईएमआई’ पर मर्सीडिज खरीदने का ऑफर है। ऑफर ठुकरा मैं आगे बढ़ता हूं। जिस पन्ने पर अब मेरी निगाह पड़ी है, वो मेरे घर बैठने के सख़्त खिलाफ है। जगह-जगह घूमने-फिरने के दसियों ऑफर हैं। कोई बीस हज़ार में तीन दिन मनाली घूमा रहा है, तो कोई नब्बे हज़ार में ऑस्ट्रेलिया ले जा रहा है। किसी की दिली ख़्वाहिश है कि बस एक बार उसके कहने पर मैं डेढ़ लाख का मामूली भुगतान कर यूरोप हो आऊं।

पढ़ते-पढ़ते अचानक मुझे घनश्याम की याद आ गई, जो कल ही मेरठ जाने के लिए मुझसे डेढ़ सौ रूपये ले गया है। इस वादे के साथ कि तीन दिन में वापिस आ जाएगा, क्योंकि इन्हीं पैसों से आगे मुझे भी घर जाना है। एक बार फिर अख़बार पर नज़र पड़ती है। विज्ञापन कहता है कि दो साल के लिए आठ हज़ार की ईएमआई पर मैं अमेरिका भी घूम सकता हूं। विज्ञापन मुझे जल्दी करने के लिए कह रहा है। तभी मोबाइल की घंटी बजती है। दूसरी तरफ घनश्याम है। वो बता रहा है कि उसे पीलिया हो गया है। आने में देरी हो जाएगी। इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता वो ये कह फोन काट देता है कि ‘रोमिंग लग रही है’। सामने रोम घुमाने का भी प्रस्ताव है। वेनिस ले जाने की व्यवस्था है। तीन दिन और चार रातों के एवज़ में पचास हज़ार की मांग है।

दो महीने पहले एक एलआईसी एजेंट मिला। जिस तरह महिलाएं डेढ़ सौ की रेंज बता दुकानदार को ‘बढ़िया सूट’ दिखाने को कहती हैं, उसी तरह मैंने भी हज़ार-बारह सौ के सालाना प्रीमियम पर उसे ‘बढ़िया स्कीम’ बताने के लिए कहा। उसने विस्तार से योजना समझाई, जिसका हासिल ये था कि अगर मैं सभी किस्तें देता रहूं तो बारह साल बाद मुझे बीस हज़ार की ‘रक़म’ मिलेगी। ( बीस हज़ार के साथ ‘रक़म’ का इस्तेमाल उसने मेरा मन खुश करने के लिए किया था।) मैं सोचने लगा कि अगर बारह साल तक दिन-रात मेहनत कर रूपया जोड़ूं तो भी सिंगापुर में तीन दिन और चार रातें नहीं गुज़ार सकता। मुझे घबराहट होती है। सोचता हूं कि आख़िर मेरी ज़िंदगी की किताब में अख़बार का ये पन्ना कब जुड़ेगा।


मुझे आज भी याद है, हमारे गांव में जब कोई बाहर से आता तो दो-चार दिन बाद बेचैन हो उठता। बावजूद ये जानते हुए कि आठवीं तक एक राजकीय स्कूल के अलावा पूरे गांव में कोई पक्की इमारत नहीं है, वो घुमाने की डिमांड करता। मजबूरी में उसे साइकिल पर बिठा गांव से दो किलोमीटर दूर पानी की टंकी दिखाने ले जाते। टंकी से रिसाव के चलते उसके आस-पास उग आई घास दिखाते। ऊंचाई और हरियाली एक साथ देख वो बेचारा निहाल हो जाता। उस गरीब को मज़ा आ जाता। दुनिया लाखों खर्च कर आइफिल टावर देखने जाती है मगर सरकार की मां बदौलत इस देश में आज भी इतना पिछड़ापन है कि लोग पानी की टंकी में भी आश्चर्य और उत्तेजना ढूंढ लेते हैं।

कल ही दो दिन की बारिश के बाद पड़ौ़स में रहने वाले सज्जन कह रहे थे कि मज़ा आ गया। बिल्कुल शिमला जैसा मौसम हो गया। मैं जानता हूं कि वो कभी शिमला नहीं गए। फिर भी हर बारिश पर हल्ला कर घोषणा कर देते हैं कि मौसम शिमला जैसा हो गया। पिता की इस घोषणा के बाद बच्चे शिमला जाने की मांग नहीं करते। पकौड़े खाते समय बीवी भी यही सोचती है कि वो शिमला में बैठी है।

मैं सोचता हूं.....एक ही बारिश में दिल्ली को शिमला बना भगवान इंद्र ने ट्रेवल एजेंसियों की रोज़ी पर लात मार दी। हे प्रभु! मुझ पर भी कृपा करो। जानता हूं तुम बीमारी के नहीं, बारिश के देवता हो...फिर भी घनश्याम को जल्दी ठीक कर दो। मुझे भी घर जाना है।

8 टिप्‍पणियां:

Shiv ने कहा…

बहुत बढ़िया.
अब तो बारिश भी कम होती जा रही है. शिमला तो दो-चार साल में लुप्त हो जाएगा...:-)

Unknown ने कहा…

CHINTA VAAJIB HAI

कुश ने कहा…

आशा है घनश्याम को भगवन जल्दी ठीक करेंगे.. एक और फाडू लेख

वीरेंद्र रावल ने कहा…

neeraj bhai, har bar ki tarah ek or amulya rachna. May god bless you as you have cheered us with your extreme sense of humour

मधुकर राजपूत ने कहा…

घनश्याम पर डेढ़ सौ रुपये उधार हैं। सही सोच है आपकी घर चले जाना। परदेस की तो ख्वाब ही छोड़ दो इतने में विदेशी कच्छा भी नहीं मिलता ज़नाब।

रंजना ने कहा…

Ab kya kahun....sach ka saamna bolti band kara hi deta hai....

Kitna sahi likha hai aapne...

सौरभ के.स्वतंत्र ने कहा…

घनश्याम और श्याम में डील हुई है...यही लगता है..प्रोटोकॉल कैसे तोड़ दें घनश्याम

Fighter Jet ने कहा…

are loan lijiye..mauz kijiye..aur aage ka 5-10 saal barbaad