बुधवार, 3 जून 2009

अकर्मण्यता का दर्शन!

काम करने से अनुभव आता है। अनुभव से इंसान सीखता है। सीखने पर जानकार हो जाता है। ये एहसास कि मैं जानता हूं, अहंकार को जन्म देता है। अहंकार तमाम पापों की जड़ है। मतलब, पाप से बचना है तो कर्म से बचो। इसीलिए भारतीय कर्म में जीवन की गति नहीं, दुर्गति देखते हैं और हर काम को तब तक टालते हैं जब तक वो टल सकता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। यही वजह है कि हमारे यहां कर्म व्यर्थ माना गया है, समय लोचशील और जीवन मिथ्या।

ऐसे में मुक्ति का एक ही मार्ग है-बेकारी। लिहाज़ा जब जानकार आंकड़े पेश करते हैं कि देश में इतने करोड़ बेरोज़गार हैं तो इसके लिए आप सरकार को साधुवाद दीजिए। ये करोड़ों बेकार नहीं बल्कि संन्यासी हैं। नौकरी नहीं-छोकरी नहीं, तनख़्वाह नहीं-टीडीएस नहीं, घर नहीं-होम लोन नहीं। मतलब, न ज़र, न ज़ोरू, न ज़मीन। एक बेकारी और सभी झंझटों से मुक्ति।

बेकारों के इतर असल चुनौती उनके सामने है जो किसी काम-धंधे में फंसे हैं। ऐसे लोगों को अपनी पूरी उर्जा ये सोचने में लगानी पड़ती है कि काम से कैसे बचा जाए। मतलब तनख्वाह तो मिलती रहे मगर करना कुछ न पड़े। ये ऐसी आदर्श काल्पनिक स्थिति है जो कम ही लोगों को नसीब होती है और जिन्हें नसीब होती है उनमें सरकारी कर्मचारी भी एक हैं। वे जानते हैं कि तनख्वाह शाश्वत है और कर्म मिथ्या। लिहाज़ा किसी के बाप में दम नहीं जो उनसे कुछ करवा पाए। सुधी पाठकों को यहां बताना ज़रूरी है कि सरकारी कर्मचारी वो जीव होता है जो कर्म की चोरी करता है और निजी कर्मचारी वो पशु होता है जो लाचारी में काम करता है। लेकिन ध्यान रहे करने को लेकर दोनों के संस्कार भारतीय ही हैं। मतलब, कर्म कर कोई भी पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता।

बहरहाल, दफ्तरी ज़िंदगी के इतर निजी ज़िंदगी में सभी को काम टालने की समान स्वतंत्रता होती है। मतलब कर्महीनता के क्षेत्र में प्रतिभा प्रदर्शन के लिए आप किसी बड़े मंच के मोहताज नहीं। चीज़ जगह पर न रख, ज़रूरत के वक़्त सब भूल, हर काम में चलताऊ रवैया दिखा, मां-बाप की गालियां खा आप दोस्त-रिश्तेदारों में ख़ासी ख़्याति बटोर सकते हैं।

इसके अलावा जो काम जितना लटक सके, उसे उसकी सीमाओं तक ले जाएं। मसलन सात तारीख़ को आपको बिजली का बिल मिला। इसे भरने की आख़िरी तारीख 25 है। वक़्त और पैसे की आपके पास कोई कमी नहीं है। फिर भी इसे न भरवाएं। इसे लटकाएं। हो सकता है 18-20 तारीख़ तक आपको आपकी आत्मा धिक्कारने लगे या फिर यहां-वहां पड़े बिल पर चाय गिर जाए, लेकिन घबराना नहीं है। याद रहे अब भी पूरे पांच दिन बाकी हैं। तीन-चार दिन और बीतने दें। 24 को देर रात पिक्चर देखकर सोएं। अगली सुबह 11 बजे आंख खोलें। आज 25 तारीख है। शनिवार का दिन है। 12 बजे के बाद बिल जमा नहीं होंगे। फुर्ती दिखाएं, सांस फुलाएं, धड़कन बढ़ाएं, पैनिक करें। परांठे का रोल मुंह में डाल, शर्ट को पेंट के भीतर घुसा गाड़ी के पास पहुंचें। जी हां, कहानी शानदार क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है। आप दफ्तर पहुंचते हैं, बारह बजने में सिर्फ पांच मिनट बाकी। खिड़की के पास कोई नज़र नहीं आ रहा। लगता है खिड़की बंद हो गई, बंदा भाग गया।


नहींईईईईईईईईईईईईई.....रूको भइया...रूको सौ-सौ के नोटों के साथ हाथ और बिल अंदर...ये लगी स्टाम्प, ये मिले खुल्ले पैसे और जमा हो गया बिल। शाबाश....निठल्ला फिर चैम्पियन!


अब आप ही सोचिए बिल भरने जैसे मामूली और फिज़ूल काम में ज़रा सी कोताही बरत आप खुद के लिए रोमांच और उत्तेजना के कितने अनमोल पल जुटा सकते हैं । तो दोस्तों, भगवान न करे पहले तो ये नौबात आए कि आप को कुछ करना पड़े और आ जाए तो उसे बेशर्मी की सीमा तक लटकाएं। याद रहे कोई कर्म सद्कर्म नहीं है, कर्म अपने आप में ही दुष्कर्म है। ऐसा सोच और इस महान रास्ते पर चल ही आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

(कादम्बिनी, जून 2009)

4 टिप्‍पणियां:

admin ने कहा…

जय हो।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Abhishek Ojha ने कहा…

वाह जी वाह ! वैसे थोडा बहुत तो हर हिन्दुस्तानी इस दर्शन को बाई डिफौल्ट मानता ही है. ज्यादातर बहुत वाले ही हैं :)

रंजना ने कहा…

Waah !! Lajawaab Darshan !! Waah !!

umda vyangy....badhai.

कुश ने कहा…

मुझसे मोबाईल कंपनी की कन्याये पूछती रहती है.. सर आप हमेशा लेट फी के साथ बिल क्यों जमा करवाते हो.. ? अब उन्हें क्या बताये हम सन्यासी बाण चुके है..

फाडू लेख