पैंट और विचारधारा में मूलभूत फर्क लोचशीलता का है। विचारधारा हालात बदलने पर खुद को एडजस्ट कर लेती है मगर पेंट की अपनी सीमा है। कुछ दिनों से कमर के हालात बदले हैं और पैंट ने उसे आगोश में लेने से इंकार कर दिया है। अब दो ही रास्ते मेरे सामने हैं। दर्ज़ी को बीस रूपये दे, पैंट की कमर चौंतीस से अड़तीस करवा लूं या जिम में पसीना बहा अपनी कमर चौंतीस कर लूं। मैं दूसरा रास्ता चुनता हूं। वैसे ये दूसरा रास्ता पहली बार नहीं चुना है। वजन घटाने और इंसान दिखने का लक्ष्य ले इससे पहले एक दर्जन बार जिम ज्वॉइन कर चुका हूं। इतनी कोशिशों के बाद असफलता का डर जा चुका है, शर्मिंदगी का रसायन बनना भी बंद हो गया है। लिहाज़ा तय हुआ कि सोमवार से जिम जाऊंगा।
मन में भरपूर जोश है मगर वॉड्रोब में जिम लायक कपड़े नहीं। बीवी को समस्या बताता हूं तो वो कुछ दिन पुराने कपड़ों के साथ जिम जाने की सलाह देती है। कहती है जिम जाने को ‘इवेंट’ मत बनाओ। तीन दिन से ज़्यादा आप जिम नहीं जाओगे, जिम के पैसे तो वेस्ट होंगे ही, नए कपडों को देख मेरा खून अलग खौलेगा। खून बीवी का है मगर उसके खौलने का सीधा सम्बन्ध मेरी सेहत से है। वैसे भी मैं सेहत सुधारने के मिशन पर निकला हूं, इसलिए सहमत हो जाता हूं।
‘भइया कितने दिन लगेंगे’- कमरे को कमर बनाने से जुड़ी ये मेरी पहली जिज्ञासा है, जिसे मैं जिम इंस्ट्रक्टर के सामने रखता हूं। ‘हर रोज़ दो घंटे एक्सरसाइज़ करें। परांठें, आइसक्रीम, पिज्ज़ा-विज़्जा सब छोड़ दें तो तीन महीने में आप पतले हो जाएंगे’-जिम वाला जवाब देता है। ‘और ये सब न छोड़ूं और सिर्फ एक्सरसाइज़ करता रहूं तो कब तक पतला हो सकता हूं’? ‘तब तो आप सिर्फ ‘स्टेटस मेनटेन’ रख सकते हैं’। मैं समझ गया कि जिम जाने का तभी फायदा है जब वो सब छोड़ दूं जो आज तक जीमता रहा हूं।
दीवार पर आमिर का ‘एट पैक एब्स’ का पोस्टर है तो सामने आईने में मेरे ‘एट पैक फ्लैब्स’ दिखाई दे रहे हैं। मुझे भी जोश चढ़ता है। इसी जोश के साथ मैं मशीनों से भिड़ पड़ता हूं। खुद को आर्मस्ट्रांग समझ कुछ देर साइक्लिंग करता हूं, उसेन बोल्ट मान ट्रेड मिल पर दौड़ता हूं। स्किपिंग करता हूं, एब क्रंच करता हूं।
जिम जाते हुए अब हफ्ता बीत चुका है। आईना भी इस हफ्ते की गवाही दे रहा है। व्यायाम की मेरी बगावत से नाराज़ हो गाल झड़ने लगे हैं। कमर मुरझाने लगी है। फूले गालों की ओट में छिपी आंखें भी अब दिखने लगी हैं। बीवी को भी विश्वास हो चला है कि इस बार तो कुछ हो कर ही रहेगा।
मगर तभी पतला होने के मेरे इरादों और बीवी की उम्मीदों के बीच मेरा पहला प्यार आड़े आ जाता है। इस बार तो उसकी टाइमिंग भी बहुत ग़लत है। वो मुझसे वक़्त मांगता है और मैं उसकी मांग के आगे मजबूर हूं। बीवी भी जानती है अब कुछ नहीं हो सकता। भारतीय समय के अनुसार रात साढ़े दस बजे मैच शुरू होते हैं। ख़त्म होते-होते दो बज जाते हैं। सुबह नौ बजे मुझे ऑफिस जाना होता है। और दो बजे सोने वाले आदमी से ये उम्मीद करना कि वो छह बजे उठ जाएगा, नासमझी होगी। बीवी समझदारी दिखा रही है, मैं मैच देख रहा हूं, गाल जिम न जाने की खुशी में फूल गए हैं और पतले होने के अरमान फिर से काल के गाल में समा गए हैं।
शुक्रवार, 12 जून 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
8 टिप्पणियां:
अदभुत चिंतन।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ha ha ha ha
हा हा हा ...बेजोड़ !!!
ऐसे लेख दिमाग को तरोताजा कर देते हैं....आपको फायदा हो न हो हमें तो हुआ....
अरे नीरज भाई..बस इत्ती सी समस्या..बताइये भला हम किस मर्ज की दावा हैं..लीजिये उपाए चस्म पेश है नोश फ़रमाएँ..
मैच देखते देखते..
चीयर गर्ल्स बन जाएँ..
घर में कूद कूद कर,
मैच का आनंद उठाएं..
जीत हार का गम नहीं..
डांस कसरत हो जायेगी..
पैंट क्या चीज है हुजूर,
कमर पे पाईप भी चढ़ जायेगी..(अजी पतली पानी वाली..)
अगर आप सीरियस हैं तो मेरी सलाह इस प्रकार है:
जिम के चक्कर में न पडें, एक ऐसी निक्कर खरीदें जो सिन्थेटिक फ़ाईबर की हो, मतलब जो पसीने को सूती कपडे की तरह सोखे नहीं। उसके बाद शर्ट पहनना आपकी मर्जी है।
निकल जाईये सुबह या शाम आपके घर के आस पडौस में हल्का दौडते या फ़िर ब्रिस्क वाकिंग करते हुये। बिस्क वाकिंग की परिभाषा है कि १ किमी में १०-११ मिनट से ज्यादा न लगें। वरना केवल टहलना होगा और कुछ खास लाभ नहीं होगा।
हफ़्ते में ४ बार ३०-३५ मिनट इसे नियमित करें। शुरू में थोडी परेशानी होगी तो ३ मिनट दौडना + २ मिनट चलना टाईप करें। उसके बाद आप सरपट दौडने लगेंगे। दौडने के बहाने जिम की बोरियत से मुक्ति मिलेगी और आस पडौस से ब्लाग पोस्ट लिखने के सैकडों विषय भी। है न फ़ायदे का सौदा...
और हाँ गर्मी बहुत है इसलिये हर १ किमी पर कम से कम २०० मिली पानी पीना न भूलें।
नीरज जी ने तो आपको राय दे ही दी है। वैसे हम कई बार ये कोशिश कर चुके हैं पर होता ये है कि हम उसे पूरा नहीं कर पाते।
आपके साथ ही एक नाव में सवार। पर कोशिश जोरों पर हमारी भी रहती है।
bilkul sahi likha hai, mein bhi es rol de peedit hu aur aaj hu es baare mein lekh likha hai. dr dawai khane ko kahata hai ...kya karein
bhai mazaa aa gaya
एक टिप्पणी भेजें